नये स्वर्गां और नयी पृथ्वी में सुसमाचार की विजय
बाइबिल के प्रथम अध्याय की प्रथम आयत कहती है, ‘‘आदि में परमेश्वर ने आकाश (स्वर्गों) और पृथ्वी की सृष्टि की।’’ पद 27 में परमेश्वर मनुष्य की सृष्टि नर और नारी के रूप में अपने स्वरूप में करता है, और फिर 31 पद में कहता है कि ये सब बहुत ही अच्छा है। अध्याय तीन में, आदम और हव्वा, परमेश्वर को उनकी सर्वोत्कृष्ट बुद्धि और सुन्दरता और लालसा के रूप में तिरस्कार करते हैं और इस प्रकार अपने ऊपर, उनकी भावी-पीढि़यों, और सृष्टि के प्राकृतिक क्रम पर, परमेश्वर का श्राप ले आते हैं:- ‘‘भूमि तुम्हारे कारण शापित है (यहोवा परमेश्वर कहता है); तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा’’ (उत्पत्ति 3: 17)।
उत्पत्ति 3: 15, आशा बनाये रखता है कि ये शाप, परमेश्वर की सृष्टि के लिए अंतिम शब्द नहीं रहेंगे। परमेश्वर, प्राण-विनाशक, सृष्टि-विनाशक सर्प से कहता है, ‘‘मैं तेरे और इस स्त्री के बीच में, और तेरे वंश और इसके वंश के बीच बैर उत्पन्न करूंगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एड़ी को डसेगा।’’ पौलुस प्रेरित इस आशा को इस पद के मध्य देखता है और रोमियों 8: 20-21 में इसे इस ढंग से रखता है:- ‘‘क्योंकि सृष्टि अपनी इच्छा से नहीं पर आधीन करनेवाले की ओर से व्यर्थता के आधीन इस आशा से की गई, कि सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी।’’
दुःख का असहनीय दृश्य
अतः बड़ी तस्वीर, रूपरेखा के रूप में:- परमेश्वर ने बिना कुछ से विश्व की सृष्टि की; जिस तरह से ‘उस’ ने इसे बनाया, यह सब बहुत अच्छा था; इसमें कोई दोष नहीं थे, कोई दुःख नहीं, कोई दर्द नहीं, कोई मृत्यु नहीं, कोई बुराई नहीं; और तब आदम और हव्वा ने उनके हृदयों में कुछ किया जो इतना भयावह रूप से बुरा था--इतना अकथ्य रूप से दुष्ट, परमेश्वर की संगति से एक पेड़ के फल को अधिक पसन्द करते हुए--कि परमेश्वर ने न केवल उन पर मृत्यु दण्ड की आज्ञा दी (उत्पत्ति 2: 17), वरन् सम्पूर्ण सृष्टि को उसके आधीन कर दिया, जिसे पौलुस ने ‘‘व्यर्थता’’ और विनाश का दासत्व’’ (रोमियों 8: 21-22) कहा।
दूसरे शब्दों में, जबकि एक समय कोई दुःख या दर्द या मृत्यु नहीं थी, अब प्रत्येक मानव मरता है, प्रत्येक मानव दुःख भोगता है, पशु दुःख भोगते हैं, नदियाँ अचानक अपने किनारों से उफनती हैं और गांवों को बहा ले जाती हैं, हिमस्खलन ‘स्कीइंग’ करनेवालों को दफ़न कर देते हैं, ज्वालमुखी पूरे-पूरे शहरों को नाश कर देते हैं, एक ‘सूनामी’ एक रात में 2,50,000 लोगों को मार डालता है, तूफान 800 सवार लोगों सहित फिलिप्पीनी नौकाओं को डुबा देता है, ‘एड्स’ और मलेरिया और कैंसर और हृदय-रोग लाखों वृद्ध व जवान लोगों मार डालते हैं, एक दैत्याकार टॉरनेडो (बवण्डर) सारे ‘मिडवैस्टर्न’ शहर को उखाड़ देता है, सूखा और आकाल लाखों को भूखे मरने की कग़ार पर--या कग़ार से भी आगे ले आते हैं। मौज में चलते हुए दुर्घटनाएं होती हैं, और एक मित्र का पुत्र, अनाज उठाने की मशीन में गिर जाता है और मर जाता है। एक अन्य, एक आँख खो देता है। और एक शिशु बिना चेहरे के पैदा होता है। यदि हम एक क्षण में, इस संसार के दुःखों का दस हजार में से एक भाग भी देख सकते, हम इस सब की भयावहता से मर जाते। केवल परमेश्वर ही उस दृश्य को सहन कर सकता और अपना काम जारी रख सकता है।
सृष्टि की व्यर्थता में चित्रित पाप की बीभत्सता
क्यों परमेश्वर ने मानव-जीवधारियों के पाप के कारण, प्राकृतिक क्रम को ऐसी व्यर्थता के आधीन कर दिया? प्राकृतिक क्रम ने पाप नहीं किया। मानव-जीवधारियों ने पाप किया। किन्तु पौलुस कहता है, ‘‘सृष्टि, व्यर्थता के आधीन की गई।’’ सृष्टि, ‘‘विनाश के दासत्व’’ में कर दी गई। क्यों? परमेश्वर ने कहा, ‘‘भूमि तुम्हारे कारण शापित है’’ (उत्पत्ति 3:17)। लेकिन क्यों? मनुष्य में नैतिक असफलताओं के प्रत्युत्तर में, सृष्टि में प्राकृतिक आपदाएँ क्यों हैं? आदम के दोषी सन्तानों के लिए मात्र सरल मृत्यु क्यों नहीं? क्यों शताब्दि के बाद शताब्दि तक भयावह दुःख के ये रक्तरंजित बहुमूर्तिदर्शी? क्यों हृदय- मरोड़नेवाली अशक्तताओं के साथ, इतने सारे बच्चे?
मेरा उत्तर ये है कि परमेश्वर ने प्राकृतिक संसार को एक शाप के आधीन कर दिया ताकि बीमारियों व विपत्तियों में जो भौतिक विभीषिकाएँ हम अपने चारों ओर देखते हैं, इसका जीता-जागता चित्र बन जावें कि पाप कितना भयानक है। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक बुराई, नैतिक बुराई की अकथ्य बीभत्सता की ओर इंगित करता हुआ, एक मार्गपट्ट है।
नैतिक और आत्मिक संसार की विकृति--अर्थात्, पाप के कारण, परमेश्वर ने प्राकृतिक संसार को अस्तव्यस्त कर दिया। हमारी वर्तमान पतित दशा में, पाप की अत्याधिक दुष्टता के प्रति इतने अधिक अन्धे हो गए हमारे हृदयों के साथ, हम देख या अनुभूति नहीं कर सकते कि पाप कितना घिनावना है। कदाचित् ही संसार में कोई घृणित बुराई की अनुभूति करता है जो कि हमारा पाप है। जिस तरह से वे परमेश्वर की महिमा कम करते हैं, लगभग कोई भी उत्तेजित नहीं होता या उसका जी नहीं मिचलाता। लेकिन उनके शरीरों को दर्द छूने भी दो, और परमेश्वर को स्वयं की सफाई देने के लिए बुलाया जाता है। जिस तरह से हम उसकी महिमा को चोट पहुंचाते हैं, हम उससे विचलित नहीं होते, लेकिन ‘उसे’ हमारी प्यारी छोटी अंगुली को चोट तो पहुंचाने दो और हमारा सारा नीति-गत क्रोध उभर आता है। जो दिखाता है कि हम स्वयँ को कितना ऊंचा करनेवाले और परमेश्वर को ‘उस’ के पद से उतारनेवाले हैं।
शारीरिक दर्द की तुरही का तूर्यनाद/उच्चनाद
शारीरिक कष्ट, एक भौतिक तुरही के साथ परमेश्वर का उच्चनाद है कि हमें बताये कि नैतिक और आत्मिक रूप से कुछ भयानक रूप से गलत है। बीमारियाँ और विकृतियाँ, शैतान का घमण्ड हैं। किन्तु परमेश्वर के प्रत्यादेश विधान में, वे परमेश्वर के शब्दचित्र हैं कि आत्मिक परिमण्डल में पाप कैसा है। वो सच है हालांकि कुछ अत्याधिक भक्तिपूर्ण लोग, उन विकृतियों को सहन करते हैं। पाप क्या पात्रता रखता है, विपत्तियाँ उसका परमेश्वर के पूर्वदर्शन हैं, और यह कि एक दिन हजार गुना अधिक बुरा दण्ड पायेगा। वे चेतावनियाँ हैं।
काश, हम सब देख सकते और महसूस कर सकते कि हमारे ‘बनानेवाले’ से बढ़कर किसी भी चीज को अधिक महत्व देना, ‘उसे’ अनदेखा करना और ‘उसे’ अविश्वास करना और ‘उसे’ अप्रतिष्ठित करना और हमारे बैठक के कमरे के फर्श पर के गलीचे की तुलना में, अपने हृदयों में ‘उसे’ कम ध्यान देना, कितना प्रतिकूल, कितना अपमानजनक, कितना घृणित है। हमें इसे अवश्य देखना है, अन्यथा पाप से उद्धार के लिए हम मसीह की ओर नहीं फिरेंगे, और केवल आराम को छोड़कर स्वर्ग को किसी और कारण से नहीं चाहेंगे। और आराम के लिए स्वर्ग को चाहने को वर्जित किया जाना है।
जागिये! पाप ऐसा ही है!
इसलिए परमेश्वर, दयापूर्णता से, हमारी बीमारी व कष्ट व विपत्तियों में हमें पुकारता है:- जागो! पाप ऐसा है! पाप ऐसी ही चीजों की ओर ले जाता है। (देखिये, प्रकाशितवाक्य 9:20; 16:9,11।) परमेश्वर के साथ संगति से अधिक टेलीविज़न को पसन्द करना, ऐसा है। स्वर्ग में आराम-चैन की इच्छा करना, किन्तु ‘मुक्तिदाता’ की इच्छा न करना, ऐसा है। प्राकृतिक संसार ऐसी विभीषिकाओं से भरा है जो हमें ये सोचने के स्वप्न-संसार से जगाने का लक्ष्य रखते हैं कि परमेश्वर को अप्रतिष्ठित करना कोई बड़ी बात नहीं है।
मैंने बैतलेहम में, 9/11 की चैथी बरसी पर इस सत्य का प्रचार किया, इस बात को जानते हुए कि भंयकर दुःखों से जूझते हुए हमारी कलीसिया में लोग थे। दो या तीन सप्ताह पश्चात्, मैं हमारे झुण्ड के साथ एक पूर्व-सेवा प्रार्थना सभा में था, और एक गम्भीर रूप से अशक्त बच्चे की नौजवान माँ ने प्रार्थना की, ‘‘प्रिय प्रभु, मेरी सहायता कीजिये कि जैसा मैं अपने बेटे की विकलांगता की विभीषिका की अनुभूति करती हूँ, उसी प्रकार में पाप की विभीषिका की अनुभूति करूं।’’ भाइयो, मैं एक पासवान् होना पसन्द करता हूँ--परमेश्वर के ‘वचन’ के साथ कांपता हुआ एक दूत।
अतः बड़ी तस्वीर के वर्णन पर वापिस आते हुए:- परमेश्वर ने बिना कुछ के, विश्व की सृष्टि की। जिस तरह से ‘उस’ ने इसे बनाया था, ये सब बहुत अच्छा था। इसमें कोई दोष नहीं था, कोई दुःख नहीं, कोई कष्ट नहीं, कोई मृत्यु नहीं, कोई बुराई नहीं। तब आदम और हव्वा ने अपने हृदयों में कुछ किया जो इतना भयावह रूप से बुरा था कि परमेश्वर ने न केवल उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया (उत्पत्ति 2: 17), अपितु सारी सृष्टि को ‘‘व्यर्थता’’ के आधीन और ‘‘विनाश के दासत्व’’ में कर दिया (रोमियों 8: 21-22)।
तब फिर हमारा और इस सृष्टि का क्या होना है जिसे परमेश्वर ने व्यर्थता के आधीन कर दिया है? आप उन माता-पिता से क्या कहते हैं जिनके बच्चों के पास इस जीवन में, एक छः माह के बच्चे से बढ़कर मानसिक ताकत कभी भी नहीं होगी? आंसुओं के साथ और आशा के आनन्द के साथ (‘‘शोकित हैं तथापि सदा आनन्दित’’), आप उन्हें रोमियों 8: 18-25 से इस परिच्छेद का शेष भाग पढ़कर सुनाते हैं।
मैं समझता हूं, कि इस समय के दुःख और क्लेश उस महिमा के साम्हने, जो हम पर प्रगट होनेवाली है, कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि सृष्टि बड़ी आशाभरी दृष्टि से परमेश्वर के पुत्रों के प्रगट होने की बाट जोह रही है। क्योंकि सृष्टि अपनी इच्छा से नहीं पर आधीन करनेवाले की ओर से व्यर्थता के आधीन इस आशा से की गई, कि सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी। क्योंकि हम जानते हैं, कि सारी सृष्टि अब तक मिलकर कहरती और पीड़ाओं में पड़ी तड़पती है। और केवल वही नहीं पर हम भी जिन के पास आत्मा का पहिला फल है, आप ही अपने में कहरते हैं; और लेपालक होने की, अर्थात् अपनी देह के छुटकारे की बाट जोहते हैं। आशा के द्वारा तो हमारा उद्धार हुआ है परन्तु जिस वस्तु की आशा की जाती है, जब वह देखने की आए, तो फिर आशा कहां रही? क्योंकि जिस वस्तु को कोई देख रहा है, उस की आशा क्या करेगा? परन्तु जिस वस्तु को हम नहीं देखते, यदि उस की आशा रखते हैं, तो धीरज से उस की बाट जोहते भी हैं।
नौजवान पासवानों के लिए, स्पष्टता प्राप्त करने के लिए इस की तुलना में, कुछ और मूल-पाठ और अधिक महत्वपूर्ण हैं। बैतलेहम में आने के पश्चात् सत्ताईस साल पूर्व अपना प्रथम प्रवचन जिसका मैंने उपदेश दिया था, ‘‘क्राइस्ट एण्ड कैंसर’’ कहलाया है। मैं चाहता था कि मेरे लोग बीमारी और दुःख की मेरी धर्मशिक्षा को जानें। मैं चाहता था कि वे जानें कि जब मैं अस्पताल में उनसे मिलने को आया था, मैं यह पूर्वानुमान नहीं कर रहा था कि यदि उनके पास पर्याप्त विश्वास होता, परमेश्वर उन्हें निश्चित ही चंगा कर देता। मैं चाहता था कि वे विशेषतया पद 23 देखें, ‘‘और केवल वही नहीं पर हम भी जिन के पास आत्मा का पहिला फल है, आप ही अपने में कहरते हैं; और लेपालक होने की, अर्थात् अपनी देह के छुटकारे की बाट जोहते हैं।’’ अपनी देह के छुटकारे की बाट जोहते हुए, ‘आत्मा’ से भरे हुए लोग कहरते हैं। बाइबिल में यह पूरा परिच्छेद, विश्व-मण्डलीय रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण में से एक और पासवानों के लिए सर्वाधिक बहुमूल्य है। यह हमें नये शरीरों के साथ, नये स्वर्गों और नयी पृथ्वी की ओर ले जाता है, और यह अभी इस युग में हमारे कहरने की परम् यर्थाथ् तस्वीर देता है, और यह हमें उस आशा के साथ सम्भालता है जिस में हम ने उद्धार पाया था। अतः चार टिप्पणियों के साथ मुझे इसे खोलने का प्रयास करने दीजिये।
1. परमेश्वर प्रतिज्ञा करता है कि इस सृष्टि का इसकी व्यर्थता से और विनाश के दासत्व से एक छुटकारा होगा।
पद 21अ:- ‘‘सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा … प्राप्त करेगी।’’ प्राकृतिक संसार--पदार्थी, भौतिक संसार --शाप से, व्यर्थता और विनाश की आधीनता से मुक्त किये जायेंगे। नये स्वर्गों और नयी पृथ्वी के बारे में बताने का ये पौलुस का तरीका है। ये पृथ्वी, ये आकाश, स्वतंत्र किये जावेंगे। ये पृथ्वी एक नयी पृथ्वी होगी।
यशायाह 65:17:- देखो, मैं एक नया आकाश और नई पृथ्वी उत्पन्न करता हूं; और पहिली बातें स्मरण न रहेंगी और सोच विचार में भी न आएंगी।
यशायाह 66:22:- क्योंकि जिस प्रकार नया आकाश और नई पृथ्वी, जो मैं बनाने पर हूं, मेरे सम्मुख बनी रहेगी, उसी प्रकार तुम्हारा वंश और तुम्हारा नाम भी बना रहेगा; यहोवा की यही वाणी है।
2 पतरस 3:13:- उस की प्रतिज्ञा के अनुसार हम एक नये आकाश और नई पृथ्वी की आस देखते हैं जिन में धार्मिकता वास करेगी।
प्रकाशितवाक्य 21:1, 4:- फिर मैं ने नये आकाश और नयी पृथ्वी को देखा, क्योंकि पहिला आकाश और पहिली पृथ्वी जाती रही थी, और समुद्र भी न रहा … और वह उन की आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा; और इसके बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहिली बातें जाती रहीं।
प्रेरितों के काम 3: 19-21:- इसलिए, मन फिराओ और लौट आओ कि तुम्हारे पाप मिटाए जाएं, जिस से प्रभु के सन्मुख से विश्रान्ति के दिन आएं। और वह उस मसीह यीशु को भेजे जो तुम्हारे लिये पहिले ही से ठहराया गया है। अवश्य है कि वह स्वर्ग में उस समय तक रहे जब तक कि वह सब बातों का सुधार न कर ले जिस की चर्चा परमेश्वर ने अपने पवित्र भविष्यद्-वक्ताओं के मुख से की है, जो जगत की उत्पत्ति से होते आए हैं।
रोमियों 8: 21 में पौलुस के शब्द, पुरानी पृथ्वी और नयी पृथ्वी के बीच निरन्तरता का एक स्पष्ट साक्षी हैं:- ‘‘सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा … प्राप्त करेगी।’’ अतः वह ‘‘नयी’’ का अर्थ ‘‘नयी की गई’’ समझता है, प्रतिस्थापित की गई नहीं। यह ‘‘मुझे एक नयी कार मिली’’ के समान नहीं है। जब कोई चीज स्वतंत्र की जाती है, ये अस्तित्व से बाहर नहीं हो जाती या परित्याग नहीं कर दी जाती। ये बदल सकती है, किन्तु ये अब भी वहाँ है, और स्वतंत्र है।
अतः अशक्त बच्चे के साथ उस माँ से जो आप कहते हैं, उनमें से एक है:- आप जानती हैं, बाइबिल सिखाती है कि परमेश्वर की महिमा के लिए यद्यपि आपके बच्चे को इस पृथ्वी पर कूदने और दौड़ने से आजीवन वंचित किया गया है, हर बीमारी और विकलांगता से मुक्त की गई, एक नयी पृथ्वी आ रही है, और उस के पास न केवल आजीवन मात्र होगा, अपितु एक सनातन होगा, परमेश्वर की महिमा के लिए दौड़ने और कूदने के लिए।
2. विनाश के इसके दासत्व से प्राकृतिक क्रम की यह मुक्ति, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता में एक हिस्सेदारी होगी।
पद 21:- ‘‘सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी।’’ यहाँ पर क्रम अर्थ-पूर्ण है। ठीक जैसे कि सृष्टि ने पाप में गिरे मनुष्य का विनाश में अनुसरण किया, उसी प्रकार सृष्टि छुटकारा पाए हुए मनुष्य का महिमा में अनुसरण करती है।
एक दुःख उठाते हुए सन्त एक पीडि़त बच्चे के माता-पिता को कोई व्यक्ति कहने को प्रलोभित हो सकता है, ‘‘आप देखिये कि बाइबिल क्या कहती हैः- प्राकृतिक क्रम--सृष्टि--विनाश से इसके दासत्व से स्वतंत्र की जावेगी। ठीक है, आपका शरीर--अथवा आपके बेटे का शरीर--उस क्रम का हिस्सा है, क्या ऐसा नहीं है? हाँ, आप भी--वह भी--विनाश से इस महिमामय स्वतंत्रता का अनुभव करेंगे और एक नयी पुनरूत्थान की देह पायेंगे, क्योंकि जो स्वतंत्र किया जा रहा है, आप उसका हिस्सा हैं।’’
निश्चित ही यह वो तरीका नहीं है जैसा कि पौलुस चीजों को देखता है। ये सच है कि हमारे शरीर एक नयी श्रेणी में मुक्त किये जायेंगे। पद 23ब:- ‘‘हम भी … लेपालक होने की, अर्थात् अपनी देह के छुटकारे की बाट जोहते हैं।’’ लेकिन हमारे शरीर, सृष्टि का हिस्सा होने के कारण इस नयेपन में बदल नहीं जाते। यह ठीक इसके विपरीत तरह से है। सृष्टि, ‘‘परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता’’ में बदल जायेगी। पद 21:- ‘‘सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी।’’
परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता पहिले आती है। तब, उनके नये और महिमामय देहों के द्वारा ‘उस’ की सन्तानों को महिमित करने के बाद--जो यीशु ने कहा कि हमारे ‘पिता’ के राज्य में सूर्य के समान चमकेंगे (मत्ती 13: 43) --तब सम्पूर्ण सृष्टि, महिमित परिवार के लिए एक उपयुक्त निवास के रूप में परमेश्वर द्वारा, सज्जित कर दी जाती है।
अतः आप अशक्त बच्चे के माता-पिता से कहते हैं, ‘‘आपका बच्चा, नये महिमित विश्व के अनुकूल होने के लिए बदल नहीं दिया जावेगा; नया विश्व आपके महिमित बच्चे--और आप के अनुकूल होने के लिए बदल दिया जायेगा।’’ पद 21 की मूल बात ये है कि परमेश्वर अपने बच्चों से प्रेम करता है और जो उनके लिए सर्वोत्तम है, उपलब्ध करता है। इस वाक्यांश पर ध्यान दीजिये, ‘‘परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता।’’ सन्तों की महिमा की स्वतंत्रता नहीं, या मसीहीगणों की महिमा की स्वतंत्रता, या छुड़ाये हुओं की महिमा की स्वतंत्रता नहीं। ये सच होगा। लेकिन पौलुस इस तरह से नहीं सोच रहा है।
पौलुस के दिमाग में यहाँ पर क्या है, कुछ वो है जो पाँच आयतों पूर्व है--रोमियों 8:16-17:- ‘‘‘आत्मा’ आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं। और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, बरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुःख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं।’’ पद 21 में मूल बात ये है कि नये स्वर्ग और नयी पृथ्वी, सन्तानों की मीरास है। विश्व अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है। यह परमेश्वर की सन्तानों के खेल के मैदान के रूप में महत्वपूर्ण है--और मंदिर और फ़ार्म और शिल्प की दुकान के रूप में। परमेश्वर अपनी सन्तानों को विश्व के लिए आकार नहीं देता। ‘वह’ विश्व को अपनी सन्तानों के लिए आकार देता है। यह आदि से सच था और यह अन्त में भी सच है, और यह विशेषकर ‘उस’ के देहधारी ‘पुत्र’, परमेश्वर-मनुष्य यीशु मसीह, के लिए सच है। सभी चीजें ‘उस’ के लिए बनायी गई थीं। आपके अशक्त बच्चे को और अधिक अनुकूल नहीं बनना होगा। उसकी देह पूरी तरह छुड़ायी जावेगी और नयी होगी। और सृष्टि में हर चीज उसके अनुकूल होगी।
3. नयी, स्वतंत्र की गई सृष्टि के आगमन की तुलना एक जन्म के साथ की गई है, ताकि न केवल इस संसार के साथ निरन्तरता है अपितु अन्तराल भी।
पद 22:- ‘‘क्योंकि हम जानते हैं, कि सारी सृष्टि अब तक मिलकर कहरती और पीड़ाओं (सनोडिवी ) में पड़ी तड़पती है।’’ (अंग्रेजी से सही अनुवादः- ‘‘बच्चा जनने की पीड़ाओं में’’।) जब एक बच्चा पैदा होता है, वो बच्चा एक मानव है, एक घोड़ा नहीं। वहाँ निरन्तरता है। किन्तु वो बच्चा ठीक वही मानव नहीं है। अब मैं नहीं सोचता कि हम इस प्रकार के एक रूपक पर बल दे सकते हैं--नयी पृथ्वी का आगमन, एक बच्चे के जन्म के जैसा है--मानो ये अर्थ हो कि नयी पृथ्वी का पुरानी पृथ्वी से ठीक वही सम्बन्ध है जैसा कि एक बच्चे का एक माँ के साथ होता है। वो शब्दों को बहुत अधिक वजन दे देगा। किन्तु वे अवश्य ही सम्भावित अन्तराल का प्रश्न उठाते हैं और अन्य परिच्छेदों को देखने की ओर हमें भेजते हैं कि देखें कि वहाँ किस प्रकार का अन्तराल हो सकता है। अवश्य ही, वर्तमान संदर्भ कहता है:- यह शरीर, व्यर्थता और विनाश से स्वतंत्र हो जाने वाला है। किन्तु कुछ और अधिक है।
वास्तव में, हम निरन्तरता और अन्तराल, दोनों की ओर सुस्पष्ट संकेतक पाते हैं। पौलुस में, स्पष्टतम् संकेतक 1 कुरिन्थियों 15 में हैं। वह पद 35 में प्रश्न सामने रखता है:- ‘‘अब कोई ये कहेगा, कि ‘मुर्दे किस रीति से जी उठते हैं, और कैसी देह के साथ आते हैं?’’’ फिर वह इस प्रकार के शब्दों के साथ उत्तर देता है। 37-51 आयतें:-
और जो तू बोता है, यह वह देह नहीं जो उत्पन्न होनेवाली है (वो अन्तराल है), परन्तु निरा दाना है, चाहे गेहूं का, चाहे किसी और अनाज का। परन्तु परमेश्वर अपनी इच्छा के अनुसार उसको देह देता है; और हर एक बीज को उसकी विशेष देह {यह ठीक सृष्टिकर्ता के समान ध्वनित होता है, मात्र छुटकारा देनेवाले के समान नहीं, जो कि तसल्ली देनेवाला है जब आप सोचते हैं कि आपके पुरखों की देह अब विघटित हो चुकी हैं, और वे परमाणु जिन्होंने उनकी देहों को बनाया, अब हजारों अन्य लोगों और पौधों और पशुओं में हैं} … शरीर नाशमान दशा में बोया जाता है, और अविनाशी रूप में जी उठता है। वह अनादर के साथ बोया जाता है, और तेज के साथ जी उठता है; निर्बलता के साथ बोया जाता है; और सामर्थ के साथ जी उठता है। स्वाभाविक देह बोई जाती है, और आत्मिक देह जी उठती है। {बार-बार वह कहता है, यह बोया गया था और वही यह जिलाया गया है। वो निरन्तरता है।} जब कि स्वाभाविक देह है, तो आत्मिक देह भी है {अतः शब्द देह में निरन्तरता निहित है और प्राकृतिक और आत्मिक शब्दों में अन्तराल निहित है} … जैसे हम ने उसका रूप जो मिट्टी का था, धारण किया वैसे ही उस स्वर्गीय का रूप भी धारण करेंगे। {रूप अभिन्न नहीं हैं; वहां अन्तराल और निरन्तरता है।} हे भाइयो, मैं यह कहता हूं कि मांस और लोहू परमेश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं हो सकते, और न विनाश अविनाशी का अधिकारी हो सकता है। देखो! मैं तुम से भेद की बात कहता हूं।
अवश्य ही, एक भेद। हम सब बदल जाएंगे। किन्तु, जैसा कि यूहन्ना कहता है, ‘‘हे प्रियो, अभी हम परमेश्वर की सन्तान हैं, और अब तक यह प्रगट नहीं हुआ, कि हम क्या कुछ होंगे’’ (1 यूहन्ना 3:2)। यीशु ने कहा, ‘‘जी उठने पर ब्याह शादी न होगी; परन्तु वे स्वर्ग में परमेश्वर के दूतों की नाईं होंगे (मत्ती 22:30)। चीजें भिन्न होंगी। उदाहरण के लिए, पतरस, अपनी दूसरी पत्री में, वर्तमान संसार का एक सरल पुनसर्थापन या सुधार नहीं देखता। 2 पतरस 3:7 में वह कहता है, ‘‘वर्तमान काल के आकाश और पृथ्वी उसी वचन के द्वारा इसलिये रखे हैं, कि जलाए जाएं; और वह भक्तिहीन मनुष्यों के न्याय और नाश होने के दिन तक ऐसे ही रखे रहेंगे।’’ प्रेरित यूहन्ना कहता है, ‘‘पहिला आकाश और पहिली पृथ्वी जाती रही थी, और समुद्र भी न रहा’’ (प्रकाशितवाक्य 21:1)। ‘‘और उस नगर में सूर्य और चान्द के उजाले का प्रयोजन नहीं, क्योंकि परमेश्वर के तेज से उस में उजाला हो रहा है, और मेम्ना उसका दीपक है’’ (प्रकाशितवाक्य 21:23)। ‘‘और फिर रात न होगी’’’ (प्रकाशितवाक्य 22:5)।
कोई रात नहीं, सूरज नहीं, चान्द नहीं, समुद्र नहीं, विवाह नहीं, एक संसार में आग में से आत्मिक देह लाये गए। और तथापि निरन्तरता--फिलिप्पियों 3:21:- ‘‘वह अपनी शक्ति के उस प्रभाव के अनुसार जिस के द्वारा वह सब वस्तुओं को अपने वश में कर सकता है, हमारी दीन-हीन देह का रूप बदलकर, अपनी महिमा के देह के अनुकूल बना देगा।’’ और यीशु की पुनरुत्थान की देह किस प्रकार की थी जिस के समान हमारी देह होगी? ये पहचाने जाने लायक थी। यह आकाशीय रूप से अबोध्य थी, असाधारण तरीकों से आने और अदृश्य हो जाने वाली। और फिर भी लूका 24:39-43 के इन चकित करनेवाले और महत्वपूर्ण शब्दों को देखिये:
‘‘मेरे हाथ और मेरे पांव को देखो, कि मैं वहीं हूं; मुझे छूकर देखो; क्योंकि आत्मा के हड्डी मांस नहीं होता जैसा मुझ में देखते हो।’’ यह कहकर उस ने उन्हें अपने हाथ पांव दिखाए। जब आनन्द के मारे उन को प्रतीति न हुई, और आश्चर्य करते थे, तो उस ने उन से पूछा; ‘‘क्या यहां तुम्हारे पास कुछ भोजन है?’’ उन्हों ने उसे भूनी मछली का टुकड़ा दिया। उस ने लेकर उन के साम्हने खाया।’’
‘उस’ ने मछली खाया। अतः तीसरा मूल बात है:- नये स्वर्गों और नयी पृथ्वी में, इस संसार के साथ निरन्तरता होगी और एक इस प्रकार का अन्तराल जो हमारे लिए एक ‘‘भेद’’ रह जाता है। अब तक यह प्रगट नहीं हुआ, कि हम क्या कुछ होंगे। हम अवश्य जानते हैं कि हम उस के समान होंगे। अतः जब अशक्त बच्चे के माता-पिता पूछते हैं, ‘‘क्या हमारा बेटा बढ़ेगा? क्या वह अपने आप से खायेगा? क्या वह सृष्टि के साथ कुछ कर सकेगा?’’ हम कहेंगे, परमेश्वर ने संसार को इसलिए नहीं बनाया और संरक्षित रखा कि तबाह किया जावे। आपका बेटा यीशु के साथ खायेगा। परमेश्वर उसे एक ऐसे स्तर का विकास देगा जो उसके सबसे बड़े आनन्द का और परमेश्वर की महानतम् महिमा के लिए होगा। लेकिन बहुत भेद है। हम एक कांच में से धुंधला देखते हैं।
अतः इतने अधिक भेद के प्रकाश में उनका सबसे गहरा आश्वासन् क्या है? और उनके पुत्र के लिए--और उनके लिए, उनकी सबसे ऊंची आशा क्या है? ये अन्ततः हमें चैथी टिप्पणी की ओर, और यीशु मसीह के सुसमाचार की ओर ले आता है।
4. नयी सृष्टि में छुटकारा पाये हुए देहों को पाने की आशा, हमारे उद्धार के द्वारा सुरक्षित है, जिसे हम सुसमाचार में विश्वास के द्वारा प्राप्त करते हैं, किन्तु ये हमारी सर्वोत्तम आशा नहीं है।
विशेष रूप से रोमियों 8:23ब-24 पर ध्यान दीजिये:- ‘‘हम भी … लेपालक होने की, अर्थात् अपनी देह के छुटकारे की बाट जोहते हैं। आशा के द्वारा तो हमारा उद्धार हुआ है {अंग्रेजी से सही अनुवादः- क्योंकि इसी आशा में हमारा उद्धार हुआ था }’’ उसका क्या अर्थ है--‘‘इसी आशा में हमारा उद्धार हुआ था?’’ यह एक सम्प्रदान कारक है (टे गार एलपिडि ईसोथेमैन)। शायद उद्धरण का एक सम्प्रदान कारक:- इस आशा के संदर्भ में हमारा उद्धार हुआ। निश्चित ही यह इस अर्थे को सम्मिलित करेगा कि, जब हमारा उद्धारा हुआ था, यह आशा हमारे लिए सुरक्षित की गई थी। और चूंकि हमारा उद्धार, इस सुसमाचार पर भरोसा करने के द्वारा होता है कि मसीह हमारे पापों के लिए मर गया और फिर जी उठा (1 कुरिन्थियों 15:1-3), ये आशा, सुसमाचार के द्वारा सुरक्षित की गई है। इस आशा तक हमें लाने में सुसमाचार विजयी होता है (रोमियों 6:5; 8:11)।
किन्तु हमें इसे वहीं नहीं छोड़ देना चाहिए। सुसमाचार, एक चट्टान के समान ठोस आश्वासन् है कि नये स्वर्ग और नयी पृथ्वी होगें और यह कि हम छुटकारा पाये हुए देहों के साथ जिलाये जायेंगे कि वहाँ सदा के लिए रहें। हमारे स्थान पर मसीह को क्रूसित किये जाने का सुसमाचार, हमारी क्षमा हमें प्रदान करते हुए और हमारी धार्मिकता प्रदान करते हुए और सभी चीजों के ऊपर अधिकार के साथ मरे हुओं में से जी उठने के द्वारा, इस काम को न्यायसंगत प्रमाणित करना--यही है जो हम इन माता-पिता को बतायेंगे, जब वे भय और ग्लानि के सम्मुख किसी चट्टान को ढूंढ रहे हैं कि खड़े हो सकें।
सुसमाचार का परम उपहार: क्रूसित मसीह में परमेश्वर देखा गया
लेकिन सुसमाचार का परम उपहार, नये स्वर्ग और नयी पृथ्वी नहीं है। सुसमाचार की परम अच्छाई, एक छुटकारा पायी हुई देह नहीं है। सुसमाचार की परम भलाई क्षमा, या छुटकारा, या प्रायश्चित, या धर्मी ठहराया जाना, नहीं है। ये सभी एक अन्त के लिए माध्यम हैं। सुसमाचार की परम अच्छाई जो सुसमाचार को शुभ-संदेश बनाता है, और जिसके बिना इनमें से कोई भी उपहार शुभ-संदेश नहीं होंते, वो है स्वयँ परमेश्वर--जो ‘उस’ के क्रूसित और जी उठे ‘पुत्र’ की महिमा में देखा जाता है, और उसकी असीम सुन्दरता के कारण आनन्द उठाया जाता है, और उसके असीम मूल्य के कारण संजोया जाता है, और प्रतिबिम्बित किया जाता है क्योंकि हम उसके ‘पुत्र’ के स्वरूप के सदृश्य कर दिये गए हैं।
सुसमाचार: परमेश्वर की महिमा का पूरा-पूरा प्रदर्शन
और अन्तिम कारण कि एक नये स्वर्ग और नयी पृथ्वी है, यह कि चूंकि जी उठा मसीह अपनी मानव देह को कभी भी नहीं त्यागेगा अपितु कलवरी के सनातन प्रतीक के रूप में रखेगा, जहाँ परमेश्वर के अनुग्रह की महिमा का सर्वाधिक पूर्णरूपेण प्रर्दशन किया गया था। सर्वप्रथम सम्पूर्ण भौतिक विश्व की सृष्टि हुई, और फिर इसका नया रूप दिया गया, ताकि ‘परमेश्वर का पुत्र’ एक मनुष्य के रूप में देह धारण कर सके, शरीर में दुःख उठाये, क्रूस पर चढ़ाया जावे, मृतकों में से जी उठे, और परमेश्वर-मनुष्य के रूप में राज्य करे और छुटकारे पाये हुए लोगों को अनगिनत भीड़ द्वारा घेरा जावे, जो, हमारी आत्मिक देहों में गाये और बोले और काम करे और खेले और प्रेम करे, उन तरीकों से जो उसकी महिमा को पूर्ण स्पष्टतया दृश्य रूप से प्रतिबिम्बित करते हैं, क्योंकि हमारे पास शरीर हैं, ऐसे संसार में, जो आत्मिक व भौतिक रूप से परमेश्वर की महिमा से कान्तिमय/प्रकाशमान् हैं।