अपने पुत्र में परमेश्वर की प्रसन्नता

यह मेरा प्रिय पुत्र है जिस से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं ।

परिचय

आज प्रातः हम सन्देशॊं की एक नवीन श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं जो यदि प्रभु ने चाहा तो ईस्टर अप्रैल 19 रविवार की सुबह तक चलेगी। अतः आरम्भ ही में मैं आपको यह बताना चाहूंगा कि इस श्रृंखला को तैयार करने के लिए मैं कैसे प्रॆरित हुआ।

देखना बनना है

जब यह समझने की बात आती है कि उपदेश के कार्य में क्या होना चाहिए, मैं बाइबल के अनेक अनुच्छेदों द्वारा मार्गदर्शन पाता हूं, विशेषकर 2 कुरिन्थियों 3:18 से।

और हम सब खुले चेहरे से, प्रभु का तेज़ मानो दर्पण में देखते हुए, प्रभु अर्थात आत्मा के द्वारा उसी तेजस्वी रूप में अंश-अंश करके बदलते जाते हैं।

मेरा मानना है कि यह अनुच्छेद हमॆं यह सिखाता है कि मसीह के स्वरूप मॆं अंश अंश करके हमारा बदलना उसके तेज या महिमा को देखने के द्वारा होता है। “हम सब खुले चेहरे से, प्रभु का तेज . . . देखते हुए . . . उसी तेजस्वी रूप मॆं अंश अंश करके बदलते जाते हैं ।” प्रभु के सदृश्य अधिकाधिक बनने के लिए हमें उसके तेज़ पर अपनी दृष्टि लगाए रखना चाहिए।

जो संगीत हम सुनते हैं उसे हम गुनगुनाते हैं। हम अपने आस पास के उच्चारण के साथ बोलते हैं। हम अपने माता पिता से शिष्टाचार सीखते हैं। और हम स्वाभाविक रूप से उन लागॊं की नकल करते हैं जिन्हें हम सराहते हैं। परमेश्वर के विषय भी ऐसा ही है। यदि हम उस पर ध्यान लगाते और उसके तेज पर, महिमा पर दृष्टि लगाए रखते हैं, तो हम उसके रूप मॆं अंश अंश कर बदलते जाएंगे। यदि तरूण अपने मनपसन्द हीरो / हीरोईन के समान अपने बाल संवारना चाहते हैं, तो मसीही लागॊं को भी अपने परमेश्वर के समान अपना चरित्र बनाने की इच्छा होना चाहिए। आत्मिक लेनदेन मॆं देखना केवल विश्वास करना नहीं, परन्तु बनना है ।

धर्मोपदेश: परमेश्वर के तेज़ का चित्रण करना

उपदेश देने के सम्बन्ध मॆं इस से जो मैं सीखता हूं वह यह है कि बहुत हद तक उपदेश को परमेश्वर के तेज़ या महिमा का चित्रण होना चाहिए। क्योंकि उपदेश या प्रचार का लक्ष्य लागॊं को परमेश्वर के स्वरूप मॆं बदलना है। मैं सोचता हूं यह प्रचार के विषय पौलुस के दृष्टिकोण के अनुसार है क्योंकि ठीक चार पद पश्चात 2 कुरिन्थियों 4:4 मॆं वह अपने उपदेश के तत्व के विषय बताता है, “परमेश्वर के प्रतिरूप, अर्थात, मसीह के तेजोमय सुसमाचार की ज्योति ।” और फिर पद 6 मॆं वह इसे कुछ अलग रीति से बताता है, “जो हमारे हृदयों मॆं चमका है कि हमॆं मसीह के चेहरे मॆं परमेश्वर की महिमा के ज्ञान की ज्योति दे ।”

अतः पौलुस के अनुसार, प्रचार या उपदेश स्त्री-पुरुषों के अन्धकारपूर्ण हृदय मॆं ज्योति पहुंचाने का एक माध्यम है।

पद 4 में इस ज्योति को “सुसमाचार की ज्योति” कहा गया है और पद 6 में इस ज्योति को” ज्ञान की ज्योति “कहा गया है।”

पद 4 मॆं यह सुसमाचार मसीह की महिमा का सुसमाचार है और पद 6 मॆं यह ज्ञान परमेश्वर की महिमा का ज्ञान है। अतः दोनों ही पदों मॆं जो ज्योति हृदयों में पहुंचाई गई वह महिमा की ज्योति है - मसीह की महिमा की और परमेश्वर की महिमा की।

परन्तु ये दो अलग अलग तेज़ या महिमा नहीं हैं। पद 4 में पौलुस कहता है कि यह मसीह की महिमा या तेज़ है जो कि परमेश्वर का प्रतिरूप है। और पद 6 मॆं वह कहता है कि मसीह के चेहरे मॆं परमेश्वर की महिमा का तेज़ है। अतः प्रचार के द्वारा पहुंचाई गई ज्योति महिमा की ज्योति है। और इस तेज या महिमा को आप मसीह की महिमा कह सकते हैं जो कि परमेश्वर का प्रतिरूप है, या परमेश्वर का तेज़ मसीह में सिद्ध रूप से दिखाई देता है।

प्रचार या उपदेश लागॊं के हृदयों में परमेश्वर के तेज़, उसकी महिमा का चित्रण या प्रदर्शन है (4:4, 6) । ताकि इस महिमा को देखते हुए वे अंश अंश करके मसीह के रूप में बदलते जाएं (3:18) ।

अनुभव से ज्ञात सत्य

यह कोई कृत्रिम या बौद्धिक निर्माण नहीं है। मैं अपने स्वयं के अनुभव से जानता हूं कि यह सत्य है (जैसा कि आप मॆं से कई जानते हैं): परमेश्वर वास्तव मॆं जो है, उसके लिये उसे देखना, पवित्रता तथा उसमें खुशी की मेरी खोज को प्रॆरित करने में बारम्बार सबसे शक्तिशाली तथा सम्मोहक बल सिद्ध हुआ है।

अनुभव से मैं और आप यह जानते हैं कि मनुष्य की आत्मा मॆं मूल संघर्ष दो महिमाओं के मध्य है - संसार की महिमा और वह समस्त क्षणिक सुख जो यह दे सकता है, बनाम परमेश्वर की महिमा और वे समस्त शाश्वत सुख जो वह दे सकता है। ये दो महिमाएं हमारे हृदय की निष्ठा, प्रशंसा और खुशी के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। और प्रचार करने की भूमिका परमेश्वर की महिमा को इस रीति से प्रदर्शित और चित्रित और दर्शाने की है कि इसकी बेहतर उत्कृष्टता और कीमत हमारे हृदयों मॆं चमके कि आप अंश अंश करके बदल रहे हैं।

उपदेशक के सामने चुनौती

इसका अर्थ है कि एक उपदेशक के रूप मॆं मैं निंरतर इस प्रश्न का सामना करता हूं: “मैं परमेश्वर की महिमा का चित्रण इतनी उत्तम रीति से कैसे कर सकता हूं कि अधिक से अधिक लोग इसे देखें और इसके द्वारा परिवर्तित हों? दो सप्ताह पूर्व एक सभा के समय मैंने जब यह प्रश्न अपने आप से पूछा तब मेरे मन में एक नया उत्तर आया -

हेनरी स्कॉगल की पुस्तक द लाईफ ऑफ गॉड इन द सोल ऑफ मैन को मैं दुबारा पढ़ रहा था। उन्होंने इस टिप्पणी को किया: एक मनुष्य के मूल्य तथा उत्कृष्टता को उसके प्रॆम के पात्र द्वारा मापा जाना चाहिए ” (पृष्ठ 62)। यह मुझे बिल्कुल सच लगा। और तब यह विचार आया कि यदि यह मनुष्य के लिए सत्य है, जो कि स्कॉग्ल का आशय था, तो निश्चय ही यह परमेश्वर के लिए भी सत्य है: “परमेश्वर के मूल्य और उत्कृष्टता को उसके प्रॆम के पात्र द्वारा मापा जाना चाहिए ।”

अतः मैंने उन सभी स्थलों को ढूंढ़ने के लिए कई दिनों तक पवित्रशास्त्र मॆं खोज की जो हमॆं यह बताते हैं कि वह क्या है जिस से परमेश्वर प्रॆम करता, जो उसे सुखद लगता और जो उसे हर्षित करता है और जिसमें वह मगन होता है। परिणाम परमेश्वर की प्रसन्नता नामक 13 उपदेशॊं की एक योजना है।

अतः यह मेरी प्रार्थना है, और मैं आशा करता हूं आपकी भी यह प्रार्थना होगी, कि परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली बातों को देखते हुए हम उसकी महिमा को देखेंगे; और उसके आत्मा की उत्कृष्टता या मूल्य को देखेंगे; और उसकी महिमा को देखने पर हम उसके रूप मॆं अंश अंश करके बदलते जाएंगे; और उसके रूप में बदलने पर हम इस नगर में और संसार के सुसमाचार रहित लागॊं के मध्य इस महान तथा अति आकर्षक उद्धारकर्ता की जीवित गवाही देंगे। आगामी 13 सप्ताहों में जब हम उसकी ओर दृष्टि लगाते हैं तो प्रभु हमारे मध्य प्रेम और पवित्रता और सामर्थ की एक महान जागृति भेजे।

व्याख्या

परमेश्वर के प्रॆम के पात्रॊं मॆं उसकी आत्मा के मूल्य का चित्रण करते समय हमें आरम्भिक बातों को देखना होगा। परमेश्वर की प्रसन्नता के विषय सबसे पहली और प्रमुख बात हम कह सकते हैं, वह यह है कि वह अपने पुत्र मॆं प्रसन्न होता है। पांच पुष्टयोक्तियों (कथनों) मॆं मैं इस सत्य को रखना चाहूंगा।

1. परमेश्वर अपने पुत्र से प्रसन्न होता है

मत्ती 17 मॆं यीशु पतरस, याकूब और यूहन्ना को एक ऊंचे पहाड़ पर ले जाता है। जब वे चारों वहां बिल्कुल अकेले थे कुछ अत्यन्त विस्मयकारी होता है। अचानक से परमेश्वर यीशु को एक तेजोमय रूप देता है। पद 2, “ उसका मुख सूर्य के समान चमक उठा, और उसके वस्त्र प्रकाश के समान श्वेत हो गए ।” तब पद 5 में, “एक उज्जवल बादल ने उन्हें छा लिया। और देखो, बादल में से यह वाणी हुई, यह मेरा प्रिय पुत्र है जिस से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं, इसकी सुनो ।”

सर्वप्रथम, परमेश्वर शिष्यों को यीशु की स्वर्गीय महिमा की एक छोटी सी झलक देता है। 2 पतरस 1:17 मॆं पतरस कहता है – “(मसीह ने) परमेश्वर पिता से आदर और महिमा प्राप्त की ।” तब परमेश्वर अपने पुत्र के लिए अपने हृदय की बात प्रकट करता और दो बातें कहता है: “मैं अपने पुत्र से प्रॆम करता हूं” (“यह मेरा प्रिय पुत्र है”), और “मैं अपने पुत्र से अत्यन्त प्रसन्न हूं” (“जिस से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं ”)।

वह इस बात को एक और अवसर पर कहता है: अर्थात, यीशु के बपतिस्मे के समय, जब पवित्र आत्मा उतरता है और यीशु को उसकी सेवकाई के लिए अभिषिक्त करता है, जो कि पिता के प्रॆम तथा समर्थन का प्रतीक था - “यह मेरा प्रिय पुत्र है जिस से मैं अति प्रसन्न हूं ।”

और यूहन्ना रचित सुसमाचार मॆं, यीशु अनेक बार अपने प्रति पिता के प्रॆम के विषय मॆं कहता है: उदाहरण के लिए के लिए यूहन्ना 3:35, “पिता पुत्र से प्रॆम करता है, और उसने उसी के हाथ मॆं सब कुछ सौंप दिया है।” यूहन्ना 5:20, “क्योंकि पिता पुत्र से प्रेम करता है, और वह उन सब कामों को उसे दिखाता है जिन्हें वह स्वयं करता है ।”

(साथ ही देखें, मत्ती 12:18 जहां मत्ती यशायाह 42:1 को यीशु के सन्दर्भ में उद्धरत करता है: “देखो, मेरा सेवक जिसे मैंने चुना है, मेरा प्रिय जिससे मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न है।” “अति प्रसन्न” इब्रानी शब्द रतसह से आता है जिसका अर्थ है “प्रसन्न होता है”) ।

अतः हमारा प्रथम कथन है कि परमेश्वर पिता पुत्र से प्रॆम करता है, किसी आत्म-इनकार, त्यागपूर्ण दया से नहीं, रन्तु प्रसन्नता तथा खुशी के प्रॆम के साथ। वह अपने पुत्र से अति प्रसन्न है। पुत्र में उसकी आत्मा मगन होती । जब वह अपने पुत्र को देखता है तो वह आनन्दित होता, उसे सराहता, और खुश होता है ।

2. परमेश्वर के पुत्र मॆं परमेश्वरत्व की सम्पूर्णता है

यह सत्य हमें पहले सत्य को गलत समझने से रोकेगा। आप इस स्वीकारोक्ति से सहमत हो सकते हैं कि परमेश्वर अपने पुत्र से प्रसन्न होता है, परन्तु शायद यह गलती कर सकते हैं कि यह पुत्र मात्र एक असाधारण रूप से पवित्र मनुष्य है जिसे पिता ने अपना पुत्र होने के लिए गोद ले लिया क्योंकि वह उससे बहुत प्रसन्न था।

परन्तु कुलुस्सियों 2:9 इस बात पर बिल्कुल अलग दृष्टिकोण देता है। “उनमें परमेश्वरत्व की समस्त परिपूर्णता सदेह वास करती है ।” परमेश्वर का पुत्र मात्र एक चुना हुआ मनुष्य नहीं है। उसमें परमेश्वरत्व की सम्पूर्णता वास करती है।

तब कुलुस्सियों 1:19 इसका सम्बन्ध परमेश्वर की प्रसन्नता से जोड़ता है: “क्योंकि पिता को यही भाया कि (परमेश्वरत्व की) समस्त परिपूर्णता उसी मॆं वास करे ।” दूसरे शब्दों मॆं, यह करना परमेश्वर को भला लगा। परमेश्वर ने एक ऐसे मनुष्य को संसार में नहीं ढूंढ़ा जो कि उसकी प्रसन्नता के योग्य ठहरे और तब उसे वह अपना पुत्र बनाए। वरन् परमेश्वर ने स्वयं पहल की और देहधारण के कार्य मॆं एक मनुष्य मॆं अपनी समस्त परिपूर्णता को दिया। या हम कह सकते हैं कि उसने अपने परमेश्वरत्व की परिपूर्णता को मानव रूप धारण करने में पहल की। और कुलुस्सियों 1:19 कहता है कि उसे यही भाया! यह उसकी प्रसन्नता और खुशी थी।

हम शायद यह कहना चाहेंगे कि परमेश्वर को ऐसा कोई पुत्र नहीं मिला जिस से वह प्रसन्न हो, परन्तु उसने एक ऐसे पुत्र को बनाया जिससे वह प्रसन्न हो। परन्तु यह अत्यन्त भ्रामक होगा, क्योंकि परमेश्वरत्व की यह परिपूर्णता, जो अब मसीह में सदेह वास करती है (कुलुस्सियों 2:9), इस से पहले कि उसने यीशु में मानव रूप धारण किया व्यक्तिगत रूप मॆं उपस्थित थी। यह हमॆं परमेश्वर में और पीछे तथा स्वीरोक्ति 3 मॆं आगे ले जाता है।

3. वह पुत्र जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता है परमेश्वर का अनन्त स्वरूप तथा प्रतिबिम्ब है और अतः स्वयं परमेश्वर है

यहां कुलुस्सियों 1:15-16 में पौलुस कहता है,

वह तो अदृश्य परमेश्वर का प्रतिरूप और सारी सृष्टि मॆं पहलौठा है (अर्थात, वह है जो कि समस्त सृष्टि पर परमेश्वर के पुत्रत्व के पद पर सुशोभित है); क्योंकि उसी मॆं सारी वस्तुओं की सृष्टि हुई, स्वर्ग की हो अथवा पृथ्वी की।

यह पुत्र परमेश्वर का प्रतिरूप है। इसका क्या अर्थ है? इससे पहले कि हम कहे, आइए हम कुछ सदृश्य पदनामों पर विचार करें।

इब्रानियों 1:3 मॆं इस पुत्र के विषय लिखा है कि,

वह उसकी महिमा का प्रकाश, और उसके तत्व की छाप है, और सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ के वचन से सम्भालता है।

फिलिप्पियों 2:6 मॆं पौलुस कहता है,

जिसने परमेश्वर के स्वरूप मॆं होकर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश मॆं रखने की वस्तु न समझा।

अतः जिस पुत्र से परमेश्वर प्रसन्न होता है वह उसका अपना प्रतिरूप है; उसकी अपनी महिमा को प्रतिबिम्बित करता है; उस पर उसके स्वरूप की छाप है; वह उसी का रूप है; और परमेश्वर के तुल्य है।

इसलिए हमॆं चकित नहीं होना चाहिए जब यूहन्ना 1:1 मॆं प्रेरित यूहन्ना कहता है,

आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था।

अतः यह कहना बिल्कुल भ्रामक होगा कि जिस पुत्र से परमेश्वर प्रसन्न है वह देहधारण के समय या अन्य किसी समय बनाया या सृजा गया था। “आदि में वचन था और वचन परमेश्वर के साथ था और वचन परमेश्वर था।” जब से परमेश्वर है तब से परमेश्वर का वचन, परमेश्वर का पुत्र है जिसने मसीह यीशु मॆं एक मानव रूप धारण किया।

अब हम बेहतर रीति से समझ सकते हैं कि जब बाइबल उसे परमेश्वर का स्वरूप या प्रतिबिम्ब या छाप कहती है जो कि परमेश्वर के तुल्य है, तो इसका क्या अर्थ है।

अतीत अनन्तकाल से जो एक सच्चाई रही है वह परमेश्वर है। यह एक बड़ा रहस्य है, क्योंकि हमारे लिए ऐसे परमेश्वर के विषय सोचना बहुत कठिन है जिसका कभी कोई आरम्भ नहीं हुआ और जो सदा सर्वदा से है - बिना किसी के द्वारा बनाया - मात्र एक सिद्ध सच्चाई जिसे हममें से प्रत्येक को जानना है, चाहे हम पसन्द करें अथवा नहीं।

बाइबल सिखाती है कि इस शाश्वत परमेश्वर मॆं सदा से यह गुण रहे -

  • स्वयं का एक सिद्ध प्रतिरूप
  • अपने तत्व का एक सिद्ध प्रतिबिम्ब
  • अपने स्वभाव की एक सिद्ध छाप
  • उसकी महिमा के तेज़ का एक सिद्ध स्वरूप या अभिव्यक्ति

यहां हम उस अकथनीय के किनारे पर हैं, परन्तु शायद हम केवल इतना कहने का साहस करें: जब से परमेश्वर परमेश्वर है, वह स्वयं को जानता है, और अपने विषय जो वह जानता है वह इतना सिद्ध और पूर्ण है कि स्वयं का जीवित व्यक्तिगत प्रजनन हो। और परमेश्वर का यह व्यक्तिगत स्वरूप या प्रतिरूप या रूप परमेश्वर, अर्थात परमेश्वर का पुत्र है। और इसलिए परमेश्वर पुत्र परमेश्वर पिता के साथ सह-शाश्वत है और तत्व तथा महिमा मॆं समतुल्य है।

4. अपने पुत्र मॆं परमेश्वर की प्रसन्नता स्वयं मॆं प्रसन्नता है

क्योंकि पुत्र परमेश्वर का प्रतिरूप तथा परमेश्वर का स्वरूप तथा परमेश्वर की छाप तथा परमेश्वर का रूप, परमेश्वर के तुल्य और वास्तव मॆं परमेश्वर है, इसलिए पुत्र में परमेश्वर की प्रसन्नता परमेश्वर की स्वयं मॆं प्रसन्नता है। इसलिए परमेश्वर का मौलिक, प्राथमिक गहनत्तम और आधारभूत आनन्द वह आनन्द है जो उसे उसकी अपनी सिद्धताओं मॆं है जिन्हें वह अपने पुत्र में प्रतिबिम्बित देखता है। वह पुत्र से प्रॆम करता है और पुत्र में आनन्दित होता है और प्रसन्न होता है क्योंकि पुत्र स्वयं परमेश्वर है।

प्रथम दृष्टि में यह मिथ्याभिमान प्रतीत होता है, और इसमें अहंकार, संकीर्णमनता और स्वार्थ की भावना दिखाई देती है, क्योंकि इसका यही अर्थ होता यदि हम मॆं से कोई भी हमारा प्रथम और गहनतम आनन्द अपने आपको दर्पण मॆं देखने से पाता। हम मिथ्याभिमानी, अहंकारी, संकीर्णमन और स्वार्थी होते।

परन्तु क्यों? क्योंकि हम आत्म-अवलोकन की अपेक्षा कहीं असीम उत्तम और उच्च और महान और गहन बात के लिए सृजे गए हैं। अर्थात परमेश्वर पर ध्यान करने और आनन्द उठाने के लिए! इस से निम्नतर कुछ भी मूर्तिपूजा होगा। परमेश्वर सब प्राणियो से अधिक महिमामय है। उस से प्रॆम न करना और उसमें मगन न होना उसकी योग्यता का एक घोर अपमान है।

परन्तु परमेश्वर के लिए भी यह सच है। परमेश्वर कैसे उसका अपमान न करे जो असीम सुन्दर तथा महिमामय है? परमेश्वर मूर्तिपूजा कैसे न करे? केवल एक ही सम्भव उत्तर है। परमेश्वर को सब बातों से बढ़कर उसकी अपनी मनोहरता तथा सिद्धता से प्रॆम करना तथा उसमॆं मगन होना चाहिए। हमारे लिए एक दर्पण के आगे खड़े होकर यह करना घमण्ड होगा, परमेश्वर के लिए अपने पुत्र के सामने यह करना धार्मिकता होगी।

क्या धार्मिकता का सार जो पूर्णतः महिमामय हैं, उसमें पूर्ण हर्षित होने द्वारा प्रेरित नहीं है? और क्या यह धार्मिकता के विपरीत नहीं है जब हम निम्नतर या बेकार की बातों से सबसे अधिक प्रॆम करते हैं?

और इसलिए परमेश्वर की धार्मिकता वह असीम उत्साह और खुशी और सुख है जो उसे उसकी अपनी योग्यता तथा महिमा में मिलता है। और यदि उसे कभी उसकी अपनी सिद्धताओं के इस शाश्वत जोश के विरूद्ध कुछ करना होता तो वह अधर्मी होता; वह एक मूर्तिपूजक ठहरता।

यहीं पर हमारे उद्धार के सामने सबसे बड़ी रुकावट खड़ी होती है: कि कैसे ऐसा एक धर्मी परमेश्वर हम जैसे पापियों से प्रॆम कर सकता है? परन्तु यहां पर हमारे उद्धार की नींव भी है, क्योंकि पुत्र के प्रति परमेश्वर पिता का वह असीम सम्मान ही है जो कि मेरे लिए, एक अहम पापी के लिए, यह सम्भव करता है कि पुत्र मुझ से प्रॆम करे और मुझे ग्रहण करे, क्योंकि उसकी मृत्यु के द्वारा उसने उस समस्त अपमान और चोट को दूर किया है जो मैंने अपने पाप के द्वारा परमेश्वर पिता की महिमा को पहुंचायी थी।

हम आने वाले सप्ताहों में बारम्बार देखेंगे कि कैसे पिता का उसकी सिद्धताओं मॆं असीम आनन्द हमारे छुटकारे और आशा और अनन्त आनन्द की नींव है। आज तो आरम्भ मात्र है।

मैं पांचवी और अन्तिम स्वीकारोक्ति के साथ अन्त करूंगा। यदि स्कॉगल का कहना सही है -कि एक आत्मा या मनुष्य का मूल्य और श्रेष्ठता उसके प्रॆम के पात्र (और तीव्रता) द्वारा मापी जाती है . . . तब . . .

5. परमेश्वर समस्त प्राणियों से बढ़कर सबसे श्रेष्ठ और योग्य है

क्यों? उसने अपने पुत्र, उसकी अपनी महिमा के प्रतिरूप से अनन्तकाल से असीम और परिपूर्ण शक्ति के साथ प्रेम किया। पिता और पुत्र और उनके मध्य सदा सर्वदा से प्रॆम के आत्मा का प्रवाह कैसा महिमामय और आनन्दमय है।

इस महान परमेश्वर के प्रति आदर युक्त भय के साथ हम खड़े हों। और हम जीवन के समस्त क्षणभंगुर भोग विलास और आकांक्षाओं को त्यागें, और इस खुशी मॆं शामिल हों कि परमेश्वर के पुत्र मसीह यीशु मॆं हम परमेश्वर के प्रतिरूप को देखते हैं। आइए हम प्रार्थना करें।

अनन्त, शाश्वत और धर्मी परमेश्वर, हम यह मान लेते हैं कि हमने अक्सर आपको छोटा किया और स्वयं को बड़ा किया और आपके पुत्र को वह स्थान नहीं दिया जो केवल उसी का है। हम पश्चाताप करते और त्रिएकत्व के साथ आपकी अनन्त, आत्मनिर्भर खुशी के प्रति आनन्द से सम्मान प्रकट करते हैं, और आपके पुत्र के शब्दों (यूहन्ना 17:26) मॆं हमारी प्रार्थना यह है कि वह प्रॆम जिससे आपने अपने पुत्र से प्रॆम किया वह हम मॆं हो और मसीह हम में हो, ताकि हम उस आनन्द की सहभागिता और उस प्रॆम के सागर में सदा सर्वदा के लिए मिलाए जाएं। आमीन।