परमेश्वर हमारे निमित्त है या कि स्वयं के निमित्त
वर्षों पूर्व मैं एनाहीम, कैलिफोर्निया में बिली ग्राहम क्रूसेड में गया। उस रात्रि, मैं सोचता हूँ, कि लगभग 50,000 लोग वहाँ थे, और मैं मैदान के बाई ओर बैठ गया और वहाँ से मैं भीड़ ही भीड़ को मैदान में आते देख सकता था। जब हमने “प्रभु महान” गीत गाया, मैं कुछ ही पंक्तियाँ गा सका। इसके पहले मैंने ऐसा कभी नहीं सुना था। पचास हज़ार गले परमेश्वर की स्तुति कर रहे थे! मैं कभी उस पल को नहीं भूल सकता। इससे बढ़कर मेरे लिए और कुछ अच्छा और सुन्दर नहीं हो सकता था कि 50,000 प्राणी अपने पूरे हृदय से एक साथ परमेश्वर की स्तुति कर रहे थे।
मुझे सच में विश्वास है कि उस रात्रि मुझे स्वर्ग की एक झलक मिली, क्योंकि प्रकाशितवाक्य 5:11-13 स्वर्ग का इस प्रकार चित्रण करता है -
और जब मैंने देखा, तो उस सिंहासन और उन प्राणियों और उन प्राचीनों की चारों ओर बहुत से स्वर्गदूतों का शब्द सुना, जिनकी गिनती लाखों और करोड़ों की थी। और वे ऊँचे शब्द से कहते थे, “कि वध किया हुआ मेम्ना ही सामर्थ्य, और धन, और ज्ञान, और शक्ति, और आदर, और महिमा, और धन्यवाद के योग्य है।”
फिर मैंने स्वर्ग में, और पृथ्वी पर, और पृथ्वी के नीचे, और समुद्र की सब सृजी हुई वस्तुओं को, और सब कुछ को जो उनमें हैं, यह कहते सुना, कि जो सिंहासन पर बैठा है, उसका, और मेम्ने का धन्यवाद, और आदर? और महिमा, और राज्य, युगानुयुग रहे।”
स्वर्ग का यह दर्शन असंख्य प्राणियों द्वारा उनकी अपनी सम्पूर्ण शक्ति से परमेश्वर तथा पुत्र की स्तुति करने का है। और जिन्होंने मेम्ने की महिमा का स्वाद चखा है वे किसी भी कीमत पर इससे नहीं चूकेंगे।
परमेश्वर उसकी अपनी स्तुति चाहता है
मेम्ना योग्य है। परमेश्वर पिता योग्य है। और इसलिए हमें उनकी स्तुति करनी चाहिए। और हम उनकी स्तुति करेंगे। अधिकांश विश्वासियों को इस सत्य को ग्रहण करने में कोई परेशानी नहीं है। परन्तु विगत् दो सप्ताहों से हमने पवित्र शास्त्र से यह देखा कि परमेश्वर ने स्तुति के योग्य होने का न सिर्फ कार्य किया है, परन्तु उसने स्तुति पाने को अपना लक्ष्य भी बनाया है। परमेश्वर अपनी सामर्थ्य और धार्मिकता और दया के लिए महिमान्वित होने की प्रतीक्षा ही नहीं करता है, परन्तु उसने अनन्तकाल से यह पहल की है कि उसके अपने नाम को पृथ्वी पर महिमान्वित करे और अपनी महिमा के तेज को प्रदर्शित करे। जो कुछ वह करता है वह महिमान्वित होने की उसकी अभिलाषा द्वारा प्रॆरित है। यशायाह 48:11 प्रत्येक ईश्वरीय कार्य के ऊपर एक - ध्वज है :
अपने निमित्त, हाँ, अपने ही निमित्त मैं यह करूँगा। मेरा नाम क्योंकर अपवित्र ठहरे? मैं अपनी महिमा दूसरे को नहीं दूँगा।
यिर्मयाह 13:11 में इस प्रकार से लिखा है -
क्योंकि जिस प्रकार अंगोछा मनुष्य की कमर से चिपका रहता है उसी प्रकार मैंने भी इस्त्राएल के समस्त घराने और यहूदा के समस्त घराने को लपेट लिया था, ऎसा प्रभु कहता है, वे मेरे लिए एक ऐसी प्रजा बने जो मेरे नाम के लिए, मेरी प्रशंसा के लिए और मेरी महिमा के लिए हों।
परमेश्वर जो कुछ करता है उसमें उसका लक्ष्य अपने नाम के लिए प्रशंसा और महिमा पाना है।
हम ऐसा नहीं सोचें कि पुराना नियम में ही इस बात पर ज़ोर दिया गया है, इफिसियों 1 को ध्यान से पढ़ें। यह कितनी शानदार पुस्तक है! -विशेषकर वे वाक्य जो न केवल विस्तृत वर्णन करते हैं, परन्तु स्वर्ग की ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। पद 6,12, और 14 में एक वाक्यांश दोहराया गया है जो यह बिल्कुल स्पष्ट करता है कि हमें पापों से छुड़ाने और स्वयं के लिए जीतने में परमेश्वर के लक्ष्य के विषय पौलुस क्या सोचता है। पद 5 और 6 देखें -
उसने हमें अपनी इच्छा के भले अभिप्राय के अनुसार पहले से ही अपने लिए यीशु मसीह के द्वारा लेपालक पुत्र होने के लिए ठहराया, कि उसके उस अनुग्रह की महिमा की स्तुति हो।
तब पद 12 –
कि हम, जिन्होंने मसीह पर में पहले से आशा रखी थी, उसकी महिमा की स्तुति के कारण हों।
फिर पर 14 –
(पवित्र आत्मा) हमारे उत्तराधिकार के बयाने के रूप में इस उद्देश्य से दिया गया है कि परमेश्वर के मोल लिए हुओं का छुटकारा हो, जिस से परमेश्वर की महिमा की स्तुति हो।
आने वाले युग में हमारी मीरास के भावी अनन्त आनन्द उठाने को पहले से ठहराने में परमेश्वर की अनादिकाल से की गई घोषणा में, परमेश्वर का लक्ष्य और अभिप्राय यह रहा है कि उसकी महिमा की स्तुति हो, विशेषकर उसके अनुग्रह की महिमा की।
यह कि परमेश्वर प्रशंसा के योग्य है, कि हमें उसकी प्रशंसा करना चाहिए, कि हम उसकी प्रशंसा करेंगे - मसीहियों के मध्य सामान्य सच्चाईयाँ हैं, और हम इन्हें सहर्ष स्वीकार करते हैं। परन्तु इस सत्य को हम कम ही सुनते हैं कि परमेश्वर की महिमा की प्रशंसा मात्र उसके कार्यों का परिणाम नहीं है परन्तु उसके कार्यों का लक्ष्य और अभिप्राय भी है। वह संसार पर पूर्ण राज्य इसलिए करता है कि उसकी सराहना हो, उसे देखकर हम विस्मित हों, उसे महिमा दें और उसकी स्तुति करें। 2 थिस्सलुनीकियों 1:10 में पौलुस कहता है, “वह अपने पवित्र लोगों में महिमा पाने और उन सब में जिन्होंने विश्वास किया है आश्चर्य का कारण होने के लिए आएगा।“ परन्तु मेरा अनुभव यह रहा है कि लोग इस सच्चाई को कुछ असहजता के साथ स्वीकार करते हैं। यह तो उचित लगता है कि परमेश्वर की स्तुति की जाए, परन्तु यह उचित प्रतीत नहीं होता है कि वह अपनी स्तुति की इच्छा करे। क्या यीशु ने ऐसा नहीं कहा, “जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा वह नीचा किया जाएगा, और जो स्वयं को नीचा बनाएगा वह बड़ा किया जाएगा”? फिर भी, पवित्रशास्त्र के अनुसार परमेश्वर का सुस्पष्ट अभिप्राय मनुष्य की दृष्टि में स्वयं को महिमान्वित करना है।
इस सन्देश में मेरा लक्ष्य यह है कि स्वयं को महिमा देने में परमेश्वर का लक्ष्य और प्रयास पूर्णतः भला है और पूर्णतः त्रुटिहीन है और स्वयं को महिमा देने के मानवीय प्रयास से बिल्कुल अलग है क्योंकि यह प्रेम की एक अभिव्यक्ति है। मैं सोचता हूँ कि तब तो हम इस सच्चाई को सहर्ष स्वीकार करेंगे । परमेश्वर के इस लक्ष्य में उसके साथ सहभागी होंगे।
परमेश्वर की परमेश्वर-केन्द्रिता पर ठोकर खाने के दो कारण
मैं सोचता हूँ कि दो कारण हैं जिससे हम परमेश्वर की अपनी महिमा के प्रति प्रेम और मनुष्यों द्वारा उसकी स्तुति करने की लालसा के विषय ठोकर खाते हैं। पहला कारण यह है कि हम ऐसे मनुष्यों को पसन्द नहीं करते हैं जो ऐसा आचरण करते हैं, और दूसरा कारण यह है कि बाइबल यह सिखाती प्रतीत होती है कि एक व्यक्ति को उसकी अपनी महिमा की लालसा नहीं करनी चाहिए। अतः लोग उनके प्रतिदिन के अनुभव तथा पवित्रशास्त्र की कुछ शिक्षाओं दोनों के कारण परमेश्वर की स्वयं की महिमा की लालसा पर ठोकर खाते हैं।
हम ऐसे लोगों को बिल्कुल पसन्द नहीं करते हैं जो उनके अपने गुणों या शक्ति या रंग-रूप पर बड़ा गर्व करते प्रतीत होते हैं। हम ऐसे विद्वानों को पसन्द नहीं करते हैं जो उनके विशिष्ट ज्ञान को दिखाने का या उनके समस्त लेखों एवं पुस्तकों के विषय में ही बोलते रहते हैं। हम ऐसे उद्योगपतियों को पसन्द नहीं करते हैं जो अपनी उस चतुराई के विषय बोलते रहते हैं कि कैसे उन्होंने इतना धन एकत्र किया और प्रत्येक उतार चढ़ाव में वे ऊपर ही बने रहे। हम ऐसे बच्चों को भी पसन्द नहीं करते हैं जो हमेशा स्वयं ही जीतना चाहते हैं। और यदि हम उनमें से एक नहीं तो हम उन स्त्री पुरुषों की आलोचना करते हैं जो सादगीपूर्ण वस्त्र नहीं पहनते हैं, परन्तु समय के दौर के फैशन के अनुरूप वस्त्र पहनते हैं।
हम इन सब को क्यों पसन्द नहीं करते हैं? मैं सोचता हूँ इसलिए कि वे सब लोग वास्तव में प्रशंसा के योग्य नहीं हैं । क्योंकि वे उस आनन्द के साथ नहीं जीते हैं जो उन्हें उनकी योग्यता के कारण अर्जित हो, वरन् वे दूसरों की प्रशंसा तथा शाबासी पर जीते हैं। और ऐसे लोगों को हम पसन्द नहीं करते हैं। हम ऐसे लोगों को सराहते हैं जो इतने शांतचित्त हों कि उन्हें अपनी कमज़ोरियों को छिपाने की आवश्यकता महसूस न हो और जितनी वाह-वाही हो सके उतनी बटोरने के द्वारा अपनी त्रुटियों को उन्हें ढाँपना पड़े।
अतः यह विचार करने योग्य है कि ऐसी कोई भी शिक्षा जो परमेश्वर को उपरोक्त वर्ग में रखती प्रतीत हो उस पर मसीही लोग प्रश्न तो उठाएँगे ही। और बहुतों के लिए यह शिक्षा कि परमेश्वर अपनी प्रशंसा की चाह रखता है और चाहता है कि उसकी सराहना की जाए और सब कुछ अपने नाम के निमित्त कर रहा है, परमेश्वर को इसी वर्ग में रखती प्रतीत होती है। परन्तु क्या ऐसा है? एक बात तो हम निश्चय कह सकते हैं: परमेश्वर कमज़ोर नहीं है, न ही उसमें कुछ कमी घटी है: “क्योंकि उसी की ओर से, उसी के द्वारा और उसी के लिए सब कुछ है” (रोमियों 11:36)। वह सदा से था, और जो कुछ है, वह उसी के कारण है। अतः उसमें और कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। इसका स्पष्ट अर्थ है कि वह अनन्त परमेश्वर है और सृजा नहीं गया है। इसलिए, परमेश्वर की उसकी अपनी महिमा की लालसा और कि मनुष्यों द्वारा उसकी प्रशंसा की जाए, उसकी किसी कमज़ोरी को ढाँपने के लिए या किसी कमी घटी की पूर्ति करने के लिए नहीं है। ऊपरी तौर पर हमें शायद ऐसा लगे, परन्तु वह उन मनुष्यों के समान नहीं है। अपनी महिमा की स्तुति की इच्छा रखने के पीछे परमेश्वर का कोई और कारण होना चाहिए।
अनुभव से एक अन्य कारण है कि हम ऐसे लोगों को क्यों पसन्द नहीं करते हैं जो अपनी महिमा चाहते हैं। कारण मात्र यह नहीं है कि वे असिद्ध हैं, और अपनी किसी कमज़ोरी या कमी को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु यह भी कि वे प्रेम रहित हैं। उन्हें उनकी अपनी छवि और प्रशंसा की इतनी चिन्ता है कि वे दूसरों के विषय नहीं सोचते हैं। यह बात हमें बाइबल के उस तर्क की ओर ले जाती है कि परमेश्वर का उसकी अपनी महिमा की इच्छा करना ठोकर का कारण क्यों प्रतीत होता है। 1 कुरिन्थियों 13:5 कहता है, ”प्रेम अपनी भलाई नहीं चाहता है।“ अब तो सच में संकटपूर्ण बात लगती है, क्योंकि यदि, जैसा कि मैं सोचता हूँ कि पवित्रशास्त्र की स्पष्ट शिक्षा है, परमेश्वर का परम लक्ष्य महिमान्वित होना या प्रशंसा पाना है, तो वह प्रेमी कैसे हो सकता है? क्योंकि “प्रेम अपनी भलाई नहीं चाहता।” तीन सप्ताहों से पवित्रशास्त्र में हमने देखा है कि परमेश्वर स्वयं के निमित्त है। “अपने निमित्त, हाँ अपने ही निमित्त मैं यह करूँगा। मेरा नाम क्यों अपवित्र ठहरे? मैं अपनी महिमा दूसरे को नहीं दूँगा ” (यशायाह 48:11)। परन्तु यदि परमेश्वर एक प्रेमी परमेश्वर है, तो उसे हमारे निमित्त होना चाहिए। तब फिर परमेश्वर हमारे निमित्त है कि स्वयं के निमित्त?
उसकी अपनी स्तुति की लालसा करने में परमेश्वर का असीम प्रॆम
जो उत्तर मैं चाहता हूँ कि आप पाने का प्रयास करें यह सत्य है: क्योंकि परमेश्वर समस्त प्राणियों में सबसे महिमामय होने के रूप में अद्वितीय है और पूर्णतः सर्वसिद्ध है, उसे हमारे निमित्त होने के लिए स्वयं के निमित्त होना होगा। यदि उसे उसकी अपनी महिमा के लक्ष्य को त्यागना होता, तो हमारी हानि होती। स्वयं प्रशंसा पाने का उसका लक्ष्य और अपने लोगों को खुशी देने का उसका लक्ष्य एक ही बात है। मैं सोचता हूँ कि यदि हम इस प्रश्न को पूछेंगे तो हम यह समझ पाएँगे-
परमेश्वर की असीम भव्य सुन्दरता और सामर्थ्य और बुद्धि के दृष्टिगत एक प्राणी के प्रति उसका प्रेम क्या होगा? या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो, परमेश्वर आनन्द उठाने के लिए हमें क्या दे सकता था जो कि उसे सबसे प्रॆमी दर्शाता? केवल एक ही उत्तर सम्भव है, स्वयं को! यदि परमेश्वर हमें सर्वोत्तम, सब से सन्तोषप्रद देना चाहता है, अर्थात् यदि वह हम से सिद्ध प्रेम करे, तो उसे हमारे चिन्तन तथा संगति के लिए स्वयं अपने आप से कुछ कम नहीं देना चाहिए।
अपने पुत्र को भेजने में परमेश्वर का यही अभिप्राय था। इफिसियों 2:18 कहता है, कि मसीह इसलिए आया कि “एक ही आत्मा में पिता के पास पहुँच” हो। और 1 पतरस 3:18 कहता है कि, “मसीह भी सब के पापों के लिए एक ही बार मर गया, अर्थात अधर्मियों के लिए धर्मी जिस से वह हमें परमेश्वर के समीप ले आए।” परमेश्वर ने छुटकारे की सम्पूर्ण योजना प्रेमपूर्वक बनाई थी कि मनुष्य को अपने समीप ले आए, क्योंकि जैसा कि भजनकार कहता है, “तेरी उपस्थिति में आनन्द की भरपूरी है, तेरे दाहिने हाथ में सुख सर्वदा बना रहता है” (भजन 16:11)। परमेश्वर हमारे पीछे लगा है कि हमें वह दे जो सर्वोत्तम है - मान सम्मान, धन-दौलत, या इस जीवन में स्वास्थ्य नहीं, परन्तु उसके साथ एक सम्पूर्ण दर्शन और संगति।
परन्तु अभी हम उस महान खोज के किनारे पर ही हैं और मैं सोचता हूँ कि हमारी समस्या के समाधान के भी। सर्वोच्च प्रेमी होने के लिए, परमेश्वर को हमें वह देना होगा जो हमारे लिए उत्तम हो और हमें सबसे अधिक खुशी दे; उसे अपने आप को हमें देना होगा। परन्तु हम क्या करते हैं जब हमें कुछ श्रेष्ठ दिया या दिखाया जाता है, कुछ वह जिससे हम आनन्दित होते हैं? हम उसकी प्रशंसा करते हैं। हम उन नवजात शिशुओं की प्रशंसा करते हैं, जो प्रसव के समय ठीक ठाक रहते हैं; “देखो, उस गोल सिर को, उन बालों को, और उसके हाथ...कितने बड़े हैं! ” एक लम्बे समय की दूरी के बाद हम अपने प्रेमी/प्रेमिका के चेहरे को देख प्रशंसा करते हैं – “तुम्हारी आँखें तो आकाश के समान हैं, तुम्हारे बाल कितने मुलायम हैं, तुम सुन्दर हो।” हम आखरी ओवर में जीत की कितनी प्रशंसा करते हैं। शरद ऋतु में नौका पर्यटन के समय सेन्ट क्रॉइक्स् के किनारे के वृक्षों की हम प्रशंसा करते हैं।
परन्तु सी. एस. लूईस की सहायता से मैंने जो एक महान खोज की, वह मात्र यह नहीं थी कि हम उसकी प्रशंसा करते हैं जिसका हम आनन्द उठाते हैं, परन्तु यह कि प्रशंसा स्वयं आनन्द का चर्मोत्कर्ष है। यह अलग से कुछ नहीं है, यह प्रसन्नता का एक अंग है। भजन संहिता पर लिखी अपनी पुस्तक में सी. एस. लूईस इस अभिज्ञान का वर्णन करते हैं -
परन्तु स्तुति के विषय सबसे प्रत्यक्ष सत्य - चाहे वह परमेश्वर की हो या किसी और की - अजीब रीति से मैं समझ नहीं पाता था। मैं सोचता था कि यह सराहना है, या अनुमोदन या सम्मान देना है। मैंने कभी ध्यान नहीं दिया था कि समस्त आनन्द स्वतः ही स्तुति प्रशंसा में प्रकट होता है, जब तक कि (कभी कभी यद्यपि कि) शर्म या दूस रों को बोरियत दिलाने का भय इसे रोकने के लिए जानबूझकर लाया न जाए। संसार में प्रशंसा के पुल बाँधे जाते रहते हैं - एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के, तो पाठकगण अपने मनपसन्द कवि के, पर्यटक सुन्दर दृश्यों के, खिलाड़ी अपने मनपसन्द खेल के - मौसम, भोजन, हीरो, हीरोईन, घोड़े, देश, ऐतिहासिक लोग, बच्चे, फूल, पर्वत, दुर्लभ डाक-टिकिट, दुर्लभ पत्तियाँ, और कभी-कभी तो राजनेताओं तथा विद्वानों की भी प्रशंसाओं के पुल बाँधे जाते हैं। परमेश्वर की स्तुति प्रशंसा करने के विषय मेरी सारी आम परेशानी, सबसे मूल्यवान के सम्बन्ध में, हमें बेतुकेपन के साथ वह देने से इन्कार करने पर निर्भर थी, जिसे हम करना पसन्द करते हैं, वह सब जिसे हम मूल्यवान समझते हैं।
मैं सोचता हूँ कि हम उन बातों की प्रशंसा करना पसन्द करते हैं जिनका हम आनन्द उठाते हैं क्योंकि प्रशंसा न केवल अभिव्यक्त करती है, परन्तु आनन्द को पूरा करती है। यह उसका नियुक्त चर्मोत्कर्ष है। यह बधाई के कारण नहीं है कि प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे से यह कहते रहते हैं कि वे कितने सुन्दर हैं, खुशी तब तक अपूर्ण है जब तक कि वह व्यक्त न की जाए। (रिफ़्लेक्शन्स ऑन द साम्स, पृ. 93-95)।
बात यही है - हम प्रशंसा करते हैं क्योंकि खुशी तब तक अपूर्ण है जब तक कि व्यक्त न की जाए। यदि हमें जो अच्छा लगता है उसके विषय में कहने न दिया जाता और जो प्रिय लगता है उसका आनन्द नहीं लेने दिया जाता, और जो हमें सराहनीय लगता है उसकी प्रशंसा नहीं करने दी जाती, तो हमारा आनन्द पूरा नहीं होता। इसलिए, यदि परमेश्वर सच में हमारे निमित्त है, यदि वह हमें सर्वोत्तम देगा और हमारे आनन्द को पूरा करेगा,तो उसे स्वयं के प्रति हमारी प्रशंसा को जीतना, अपना लक्ष्य बनाना होगा। इसलिए नहीं कि उसे अपने आप में किसी कमज़ोरी को किनारे करना है या किसी घटी को पूरा करना है, परन्तु इसलिए कि वह हम से प्रेम करता है और हमारे आनन्द को पूरा करना चाहता है जो कि उसे, उस सबसे सुन्दर को पाने और जानने में ही मिल सकता है।
सम्पूर्ण संसार में परमेश्वर ही एक है जिसके लिए उसकी अपनी प्रशंसा खोजना परम प्रेमी कार्य है। उसके लिए स्वयं को महिमा देना सर्वोच्च सद्गुण है। जब वह सब बातों को “उसकी महिमा की स्तुति के कारण”, करता है, जैसा कि इफिसियों 1 कहता है, वह हमारे लिए संसार की समस्त वस्तुओं में से वह सम्भाल कर रखता और देता है जो हमारी अभिलाषाओं को सन्तुष्ट कर सकती हैं। परमेश्वर हमारे निमित्त है, और इसलिए वह स्वयं के निमित्त था, है और सर्वदा रहेगा। परमेश्वर की स्तुति हो! हर एक प्राणी जिसमें श्वांस है परमेश्वर की स्तुति करें।