आदि में वचन था
आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था। 2 यही आदि में परमेश्वर के साथ था। 3 सब कुछ उसके द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसमें से कुछ भी उसके बिना उत्पन्न नहीं हुआ।
यूहन्ना रचित सुसमाचार मसीह और उसके उद्धार के कार्य का एक चित्रण है। यह यीशु के जीवन के अन्तिम तीन वर्षों पर केन्द्रित है - और विशेषकर उसकी मृत्यु और पुनरुत्थान पर। यूहन्ना 20:30-31 में इसका उद्देश्य स्पष्ट है – “यीशु ने बहुत-से अन्य चिन्ह भी चेलों के सामने दिखाए जो इस पुस्तक में नहीं लिखे गए हैं, परन्तु ये कि जो लिखे गए हैं इसलिए लिखे गए हैं कि तुम विश्वास करो कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है, और विश्वास करके उसके नाम से जीवन पाओ।” यह पुस्तक लोगों के मसीह पर विश्वास लाने तथा अनन्त जीवन पाने में सहायता करने के लिए लिखी गई है।
अमसीहियों और मसीहियों के लिए लिखी गई
आप यह न सोचें कि यह पुस्तक केवल अविश्वासियों के लिए लिखी गई है। मसीह के विश्वासियों को अपने विश्वास में बने रहना चाहिए जिस से कि वे अन्त में उद्धार पाएँ। यूहन्ना 15:6 में यीशु ने कहा, “यदि कोई मुझ में बना न रहे, तो वह डाली की भांति फेंक दिया जाता है और सूख जाता है, और लोग उन्हें इकट्ठा कर आग में झोंक देते हैं और वे जल जाती हैं ।” और यूहन्ना 8:31 में उसने कहा, “यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे।”
इसलिए जब यूहन्ना कहता है कि, “ये... इसलिए लिखे गए कि तुम विश्वास करो कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है और विश्वास करके उसके नाम से जीवन पाओ”, उसका तात्पर्य यह है कि वह अविश्वासियों में विश्वास जगाने और विश्वासियों में विश्वास को बनाए रखने के लिए लिख रहा था - और इस प्रकार दोनों को अनन्त जीवन की ओर ले जाने के लिए। और बाइबल में इस से अच्छी कोई पुस्तक शायद नहीं होगी जो आपको सब से बढ़कर मसीह पर विश्वास रखने और उसे प्रिय जानने में सहायता करे।
एक प्रत्यक्षदर्शी द्वारा लिखा वृतान्त
यीशु मसीह की यह जीवनी एक ऐसे प्रत्यक्षदर्शी द्वारा लिखी गई है जो कि इन अत्यधिक महत्वपूर्ण घटनाओं का एक हिस्सा था। इस सुसमाचार में हम पाँच बार इस असामान्य वाक्यांश को पाते हैं, “चेला, जिस से यीशु प्रेम करता था” (13:23; 19:26; 20:2; 7, 21:20)। उदाहरण के लिए, यूहन्ना 21:20 के अन्त में कहता है, “पतरस ने मुड़कर उस चेले को पीछे आते देखा जिस से यीशु प्रेम करता था।” तब चार पदों के बाद, (21:24 में) कहता है, “यह वही चेला है जो इन बातों की साक्षी देता है और जिसने इन बातों को लिखा ।” अतः वह चेला जिस से यीशु प्रेम करता था - वह जो आत्मिक भोज के समय यीशु की छाती की ओर झुका हुआ था (13:23) - उसी ने मसीह यीशु के जीवन की साक्षी के रूप में तथा वे हमारे लिए क्या अर्थ रखती हैं इस पुस्तक को लिखा।
परमेश्वर द्वारा प्रेरणा प्राप्त
इस पुस्तक को परमेश्वर द्वारा प्रॆरणा प्राप्त कहने का मेरा एक कारण यह है कि यीशु ने यह करने की प्रतिज्ञा की थी। उसने, यूहन्ना 14:26 में कहा कि, “सहायक, अर्थात् पवित्र आत्मा जिसे पिता मेरे नाम से भेजेगा, वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा, और सब कुछ जो मैंने तुम से कहा है, तुम्हें स्मरण कराएगा ।” और यूहन्ना 16:13 में उसने कहा, “परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो वह तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से कुछ नहीं कहेगा, परन्तु वह जो सुनेगा, वही कहेगा ।”
दूसरे शब्दों में, यीशु ने अपने प्रॆरितों को प्रतिनिधियों के रूप में चुना, उनका उद्धार किया, उन्हें सिखाया, उन्हें भेजा, और तब कलीसिया की स्थापना के लिए पवित्रशास्त्र के लिखे जाने में ईश्वरीय मार्गदर्शन हेतु उन्हें पवित्र आत्मा दिया (इफिसियों 2:20)। इसलिए हमारा यह विश्वास है कि यूहन्ना रचित सुसमाचार परमेश्वर द्वारा प्रॆरित वचन है।
यूहन्ना के प्रथम तीन पद
“परमेश्वर का वचन” शब्द हमें यूहन्ना रचित सुसमाचार के आरम्भिक पदों को स्मरण कराता है। यूहन्ना 1:1-3, “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था। सब कुछ उसके द्वारा उत्पन्न हुआ और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कुछ भी उसके बिना उत्पन्न न हुआ।” आज हम इन्हीं पदों पर विचार करेंगे।
“वचन”: यीशु
सर्वप्रथम, हम “वचन” शब्द पर ध्यान दें। “आदि में वचन था।” वचन के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात पद 14 में पाई जाती है: “और वचन, जो अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण था, देहधारी हुआ, और हमारे बीच में निवास किया, और हमने उसकी ऐसी महिमा देखी जैसी पिता के एकलौते की महिमा।” ‘वचन’ मसीह यीशु को दर्शाता है।
यूहन्ना जानता है कि वह इन 21 अध्यायों में क्या लिखने जा रहा है। वह हमें यीशु मसीह के कार्यों तथा शिक्षाओं की कहानी सुनाने जा रहा है। यह मसीह यीशु मानव के जीवन तथा कार्यों के विषय एक पुस्तक है -उस मनुष्य के विषय जिसे यूहन्ना जानता था और जिसे उसने देखा और अपने हाथों से स्पर्श किया था (1 यूहन्ना 1:1)। उसमें मांस और लहू था। वह कोई भूत-प्रॆत या कोई परछाई नहीं था जो प्रकट हो और लुप्त हो जाए। वह खाता-पीता था और वह थकित हुआ, यूहन्ना उसे बहुत निकट से जानता था। यीशु की माता अपने जीवन के अन्तिम दिनों में यूहन्ना के साथ रही (यूहन्ना 19:26)।
इसलिए यूहन्ना 1:1-3 में यूहन्ना हमें यीशु के विषय वे सबसे महत्वपूर्ण बातें बता रहा है जो वह बता सकता था। यूहन्ना को यीशु मसीह की परिपूर्णता को समझने में तीन वर्षों से अधिक समय लग गया था। परन्तु जिसे जानने में उसे इतना लम्बा समय लगा वह नहीं चाहता कि उसके पाठकों को वह समझने में तीन पदों से अधिक कुछ लगे। वह अपने सुसमाचार के आरम्भ ही से यह चाहता है कि हम मसीह यीशु के ऐश्वर्य और ईश्वरत्व और सृष्टि रचना के अधिकारों को पक्के और स्पष्ट रीति से स्मरण रखें
यीशु अपने अनन्त ऐेश्वर्य में
पद 1-3 में यही मुख्य बात है। वह चाहता है कि हम इस सुसमाचार को श्रृद्धा, दीनता, अधीनता, विस्मय के साथ पढ़ें कि विवाह के समय और उस कुएँ पर और पर्वत पर उपस्थित मनुष्य संसार का सृष्टिकर्ता है। क्या आप यह देखते और महसूस करते हैं? यह मेरा उद्देश्य नहीं है। यह मेरे उपदेश का ढांचा नहीं है। यह इस पुस्तक का प्रारूप है। यूहन्ना ने इसे इसी रीति से लिखा है - जिस रीति से परमेश्वर चाहता था कि उसे प्रस्तुत किया जाए। आपने और मैंने शायद इसे इस रीति से लिखा होता जो पाठकों के मन में यीशु की पहचान के विषय जिज्ञासा उत्पन्न करता कि वे सोचते कि, यह मनुष्य है कौन?
परन्तु यूहन्ना कहता है, नहीं। “मेरी कलम से लिखे पहले ही वचनों से मैं आपको इस मनुष्य की पहचान से स्तम्भित और अभिभूत कर दूँगा जिसने कि देहधारण किया और हमारे मध्य निवास किया, ताकि कोई भूल न हो।” यूहन्ना चाहता है कि हम इस सुसमाचार के प्रत्येक शब्द को इस स्पष्ट, दृढ़, विस्मित ज्ञान के साथ पढ़ें कि मसीह यीशु परमेश्वर के साथ था और परमेश्वर था और जिसने हमारे निमित्त अपने प्राण दिए (यूहन्ना 15:13), सृष्टि रचना की। यूहन्ना चाहता है कि आप एक प्रतापी उद्धारक को जानें और उस पर विश्वास करें। यीशु के विषय में आपको और जो कुछ भी अच्छा लगे, लेकिन यूहन्ना चाहता है कि आप यीशु को उसके अनन्त ऐश्वर्य में बहुमूल्य समझें।
क्यों “वचन”?
परन्तु फिर भी हमें यह पूछना चाहिए कि, उसने यीशु को “वचन” कहना क्यों पसन्द किया। “आदि में वचन था।” इस प्रश्न के प्रति मेरा उत्तर यह होगा कि, यूहन्ना यीशु को वचन इसलिए कहता है क्योंकि उसने यीशु के वचनों को परमेश्वर के सत्य के रूप में और यीशु के व्यक्तित्व को परमेश्वर के सत्य के रूप ऐसे एकीकृत रूप में देखा कि स्वयं यीशु - अपने आगमन, कार्यों, शिक्षा, मृत्यु और पुनः जी उठने में - परमेश्वर का अन्तिम और निर्णायक सन्देश था। या इसे और सहज शब्दों में कहें तो : परमेश्वर जो हमसे कहना चाहता है वह न केवल और मुख्यतः वह था जो यीशु ने कहा, परन्तु जो यीशु था और जो उसने किया। उसके उपदेशों ने उसको तथा उसके कार्य को स्पष्ट किया। परन्तु उसका व्यक्तित्व और उसका कार्य वे दो मुख्य सत्य थे जिन्हें परमेश्वर प्रकाशित कर रहा था। यीशु ने कहा, “सत्य मैं ही हूँ ” (यूहन्ना 14:6)।
वह सत्य की साक्षी देने आया (यूहन्ना 18:37) और वह सत्य था (यूहन्ना 14:6)। उसकी साक्षी और उसका व्यक्तित्व सत्य के वचन थे। उसने कहा, “यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे” (यूहन्ना 8:31), और उसने कहा, “मुझ में बने रहो” (यूहन्ना 15:7)। जब हम उसमें बने रहते हैं तो हम वचन में बने रहते हैं। उसने कहा कि उसके कार्य सके विषय में “साक्षी देते हैं” (यूहन्ना 5:36; 10:25)। दूसरे शब्दों में कहें तो, अपने कार्यों में वह वचन था।
यीशु: परमेश्वर का निर्णायक, अन्तिम सन्देश
यूहन्ना द्वारा ही लिखित प्रकाशितवाक्य 19:13 में, यीशु की महिमामय वापसी का वर्णन है: “वह लहू में डुबोया हुआ वस्त्र पहने है, और उसका नाम ‘परमेश्वर का वचन’ है।” यीशु की पृथ्वी पर वापसी के समय उसे ‘परमेश्वर का वचन’ कहा गया। दो पद पश्चात यूहन्ना कहता है, “उसके मुख से एक चोखी तलवार निकलती है” (प्रकाशितवाक्य 19:15)। दूसरे शब्दों में, यीशु परमेश्वर के जो शब्द बोलता है उसमें वह जातियों को नाश करता है - अर्थात् आत्मा की तलवार द्वारा (इफिसियों 6:17)। परन्तु इस वचन की सामर्थ्य यीशु के साथ इतनी जुड़ी हुई है कि यूहन्ना कहता है कि उसके मुख से न केवल परमेश्वर के वचन की तलवार निकलती है, परन्तु यह कि वह परमेश्वर का वचन है।
अतः जब यूहन्ना अपने सुसमाचार को आरम्भ करता है तो उसकी दृष्टि में सम्पूर्ण प्रकाश, सम्पूर्ण सत्य, समस्त महिमा, समस्त ज्योति और वह सम्पूर्ण वचन है जो यीशु से उसके जीवन, शिक्षा, मृत्यु, पुनरुत्थान में निकलते हैं और वह परमेश्वर के उस समस्त प्रकाशन को इस नाम में सारगर्भित करता है - वह ‘वचन’ है - प्रथम, अन्तिम, परम, निर्णायक, पूर्ण सत्य तथा विश्वासयोग्य वचन। इसका अर्थ इब्रानियों 1:1-2 के ही समान है, “प्राचीनकाल में परमेश्वर ने नबियों के द्वारा पूर्वजों से बार बार तथा अनेक प्रकार से बातें करके इन अन्तिम दिनों में हमसे अपने पुत्र के द्वारा बातें की है ।” परमेश्वर का देहधारी पुत्र संसार के लिए परमेश्वर का चरम तथा निर्णायक वचन है।
यीशु के विषय चार अवलोकन
अब यूहन्ना इस मनुष्य यीशु मसीह के विषय में जिसके कार्य और वचन इस सुसमाचार में लिखे गए हैं हमें पहले क्या बताना चाहता है? वह हमें मसीह यीशु के विषय में चार बातें बताना चाहता है (1) उसके अस्तित्व का समय, (2) उसकी पहचान का सार तत्व (3) परमेश्वर के साथ उसका सम्बन्ध, और (4) संसार के साथ उसका सम्बन्ध।
(1) उसके अस्तित्व का समय
पद 1, “आदि में वचन था।” यूनानी में ये शब्द “आदि में” ठीक वे ही हैं जो यूनानी पुराना नियम के प्रथम शब्द हैं, “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।” यह कोई संयोग नहीं है, क्योंकि जो पहली बात यूहन्ना हमें यीशु के कार्य के विषय बताने जा रहा है वह यह है कि उसने इस संसार की सृष्टि की। पद 3 में वह यही कहता है। अतः शब्द “आदि में ” का अर्थ है: इसके पहले कि कोई भी सृष्टि की हुई वस्तु हुई, वचन था, परमेश्वर का पुत्र था।
स्मरण रखें –“ परन्तु ये जो लिखे गए हैं, इसलिए लिखे गए कि तुम विश्वास करो कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है” (यूहन्ना 20:31)। यूहन्ना अपने सुसमाचार का आरम्भ यीशु मसीह, परमश्वर के पुत्र, को समय के सम्बन्ध में अर्थात् संसार से पूर्व, स्थापित करने के साथ करता है। यहूदा अपने उस महान स्तुतिगान में इस सत्य को लिखता है, “उस अद्वैत परमेश्वर हमारे उद्धारकर्ता की महिमा, गौरव, पराक्रम एवं अधिकार, हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा जैसा सनातन काल से है, अब भी हो और युगानुयुग रहे। आमीन” (यहूदा 1:25)। 2 तीमुथियुस 1:9 में पौलुस कहता है कि परमेश्वर ने मसीह यीशु में हम पर ‘अनन्तकाल’ से अनुग्रह किया। अतः इसके पहले कि समय या कोई तत्व था, वचन, मसीह यीशु, परमेश्वर का पुत्र था। इस सुसमाचार में हम उसी से मुलाकात करेंगे।
(2) उसकी पहचान का सार तत्व
पद 1 के अन्त में, “वचन परमेश्वर था ।” इस सुसमाचार की एक विशेष बात यह है कि अति महत्वपूर्ण धर्म सिद्धान्तों को सरल से सरल शब्दों में रखा गया है। इस से सरल नहीं हो सकता था - और इससे अधिक वजनी नहीं हो सकता था। यह वचन, जो देहधारी हुआ और हमारे मध्य निवास किया, मसीह यीशु है, जो परमेश्वर था और है।
यह बात बैतलहम में - और वास्तव में सभी सच्ची मसीही कलीसियाओं में स्पष्ट रूप से ज्ञात हो कि हम मसीह यीशु की परमेश्वर के रूप में उपासना करते हैं। हम थोमा के साथ मसीह यीशु के सामने दण्डवत करते (यूहन्ना 20:28) और आनन्द तथा विस्मय के साथ अंगीकार करते हैं, “हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर।”
जब यूहन्ना 10:33 में हम यहूदी अगुवों को यह कहते हुए सुनते हैं, “भले काम के लिए हम आपको पत्थरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा के कारण और इसलिए कि आप मनुष्य होकर अपने आपको परमेश्वर बनाते हैं” हम पुकार उठते हैं, “नहीं, यह ईश्वर निंदा नहीं है। यह वही है, हमारा उद्धारकर्ता, हमारा प्रभु, हमारा परमेश्वर।”
क्या आप यूहन्ना रचित सुसमाचार पर हमारी इस श्रृंखला को देख सकते हैं? इसका तात्पर्य यह है कि हम सप्ताह प्रति सप्ताह जब मसीह यीशु को जानेंगे तब परमेश्वर को जानेंगे। क्या आप परमेश्वर को जानना चाहते हैं? हमारे साथ आइए, और दूसरों को आमंत्रित कीजिए, कि आएँ और परमेश्वर से मिलें जब कि हम यीशु से मुलाकात करते हैं।
यदि कोई यहोवा विटनेस वाला भाई या कोई मुसलमान भाई कभी आप से यह कहता है कि, “यह एक गलत भाषान्तर है। यह ‘वचन परमेश्वर था’ नहीं होना चाहिए, परन्तु ‘वचन एक ईश्वर था ।’ ” तब यदि आप यूनानी भाषा भी न जानते होंतो भी सन्दर्भ ही से इसका समाधान है कि आप यह जान सकते हैं कि उनका कहना गलत है। कुछ ही देर में अपनी अन्तिम बिन्दु में मैं आपको यह बताऊँगा। परन्तु पहले परमेश्वर के साथ उसके सम्बन्ध को देखें।
(3) परमेश्वर के साथ उसका सम्बन्ध
पद 1 के मध्य में, “वचन परमेश्वर के साथ था ।” “आदि में वचन था, वचन परमेश्वर के साथ था और वचन परमेश्वर था ।” यह त्रिएकत्व के महान ऐतिहासिक धर्म सिद्धान्त का मर्म है। किसी दिन मैं यूहन्ना की शेष रचनाओं तथा बाइबल से इसी धर्म सिद्धान्त पर सन्देश दूँगा।
परन्तु अभी इस सुस्पष्ट कथन को अपने मन मस्तिष्क में अच्छे से समझ लें -वचन, मसीह यीशु, परमेश्वर के साथ था, और वह परमेश्वर था। वह परमेश्वर है, और उसका परमेश्वर से सम्बन्ध है। वह परमेश्वर है, और वह परमेश्वर का प्रतिरूप है। वह परमेश्वर के सर्वस्व को पूर्णतः प्रकट करता है और एक विशिष्ट व्यक्ति में परमेश्वरत्व की परिपूर्णता के रूप में अनन्तकाल से है। एक अलौकिक तत्व और तीन व्यक्ति -चेतना के तीन केन्द्र। उनमें से दो का यहाँ उल्लेख है - पिता और पुत्र का। इस पुस्तक में बाद में हम इन नामों को देखते हैं। पवित्र आत्मा का परिचय बाद में दिया जाएगा।
क्योंकि हमें दर्पण में धुंधला-सा दिखाई देता है और आपका ज्ञान अधूरा है (1 कुरिन्थियों 13:9,12), चकित न हों कि यह हमारे लिए रहस्य बना रहता है। परन्तु इसे अस्वीकार न करें। यदि मसीह यीशु परमेश्वर नहीं है तो वह आपका उद्धार नहीं कर सकता था (इब्रानियों 2:14-15)। और सुन्दरता की नई खोज के लिए आपकी चिर अभिलाषा को सन्तुष्ट करने के लिए उसकी महिमा पर्याप्त नहीं होगी। यदि आप मसीह यीशु के परमेश्वरत्व को अस्वीकार करते हैं तो आप अपने प्राण को निकाल कर बाहर फेंकते हैं और उसके साथ आने वाले युग में अपने सम्पूर्ण आनन्द को।
हमने 1) उसके अस्तित्व का समय (समय से पूर्व), 2) उसकी पहचान का सारतत्व (“वचन परमेश्वर था”) और 3) परमेश्वर के साथ उसका सम्बन्ध (“वचन परमेश्वर के साथ था”) देख लिया। और अब हम संसार के साथ उसके सम्बन्ध को देखेंगे ।
(4) संसार के साथ उसका सम्बन्ध
पद 2-3: “यही आदि में परमेश्वर के साथ था। सब कुछ उसके द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कुछ भी उसके बिना उत्पन्न न हुआ ।” वचन जो देहधारी हुआ और हमारे मध्य निवास किया, हमें सिखाया, हमें डांटा, हमारी रक्षा की, हम से प्रेम किया, हमारे लिए मरा उसी ने इस संसार की सृष्टि की। पद 1 में त्रिएकत्व के जिस रहस्य को हमने देखा उसे बनाए रखना स्मरण रखें। पद 3 पर पहुँचते ही इसे छोड़ न दीजिए – “यह सब कुछ उसके द्वारा उत्पन्न हुआ ।” हाँ, परमेश्वर वचन के द्वारा कार्य कर रहा था। परन्तु वचन परमेश्वर है। इसलिए, सृष्टिकर्ता के रूप में मसीह के कार्य के ऐश्वर्य को कम न समझें। वह समस्त वस्तुओं की सृष्टि में परमेश्वर का कर्ता या वचन था। परन्तु यह करने में वह परमेश्वर था। परमेश्वर, वचन, ने संसार की सृष्टि की। आपका उद्धारकर्ता, आपका प्रभु, आपका मित्र - यीशु, आपका सृष्टिकर्ता है।
यीशु रचा नहीं गया था।
अब, मान लीजिए कि एक मुसलमान भाई या यहोवा विटनेस झुण्ड का कोई सदस्य या कोई एरियनवादी (चौथी सदी की पाखण्डी विचारधारा) आप से कहे, “यीशु परमेश्वर नहीं था, अनन्त नहीं था - न ही अनन्तकाल से परमेश्वर का पुत्र था -परन्तु यीशु को सृजा गया था। वह सृष्टि में प्रथम था। स्वर्गदूतों में सर्वश्रेष्ठ था ।” या जैसा एरियन ने कहा, “जब वह नहीं था तब कुछ था ।” यूहन्ना ने पद 3 बिल्कुल इस रीति से लिखा है जो कि यह असम्भव बनाता है।
उसने केवल यह नहीं कहा, “सब कुछ उसके द्वारा उत्पन्न हुआ।” शायद आप सोचें कि इतना कहना ही पर्याप्त है। वह एक सृष्टि नहीं है, उसने प्राणियों की सृष्टि की। परन्तु कोई दृढ़ता से यह कह सकता है, “हाँ, परन्तु, ‘सब कुछ’ में वह स्वयं शामिल नहीं है।” इसमें स्वयं उसे छोड़ सब कुछ शामिल है। अतः वह पिता द्वारा सृजा गया, परन्तु तब उसने पिता के साथ अन्य सब कुछ की सृष्टि की।
परन्तु यूहन्ना यहीं पर अन्त नहीं करता है। उसने कहा, (पद 3 के अन्त में), “और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कुछ भी उसके बिना उत्पन्न न हुआ” शब्दों के अर्थ में, “जो कुछ उत्पन्न हुआ है” क्या योगदान देते हैं? “जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कुछ भी उसके बिना उत्पन्न न हुआ ।” इसका अर्थ है कि, उत्पन्न हुई वर्ग की प्रत्येक वस्तु मसीह ने बनाई है। इसलिए मसीह नहीं बनाया गया था। क्योंकि इस से पहले आपका अस्तित्व हो, आप स्वयं को अस्तित्व में नहीं ला सकते हैं।
मसीह सृजा नहीं गया। परमेश्वर होने का यही अर्थ है। और वचन परमेश्वर था।
प्रभु हमारी सहायता करें कि हम उसकी महिमा को देख सकें। और उसकी उपासना करें। आमीन।