सेनाऒं का यहोवा, पवित्र, पवित्र, पवित्र है!
1 जून 1973 को चार्ल्स कोलसन अपने मित्र टॉम फिलिप्स से मिलने गए, जबकि “वॉटरगेट” काँड का खुलासा हुआ। वे फिलिप्स के इस कथन पर चकित और हैरान थे कि उन्होंने “मसीह यीशु को ग्रहण कर लिया” था। परन्तु उन्होंने देखा कि फिलिप्स शांतचित्त थे जबकि वे स्वयं नहीं थे। जब कोलसन वहां से निकल आए, तो गाड़ी में कुंजी भी नहीं लगा पा रहे थे क्योंकि वे बहुत रो रहे थे। वे बताते हैं कि
उस रात उनके पाप से उनका आमना सामना हुआ - न केवल वॉटरगेट की गन्दी चालबाजियों के पाप से, परन्तु मेरे अन्दर के गहरे पाप से, उस छिपी हुई बुराई से जो प्रत्येक मनुष्य के हृदय में रहती है। यह दुखदायी था, और मैं इस से बच नहीं सका। मैं परमेश्वर को पुकार उठा और मैंने तुरन्त ही अपने आपको उसकी प्रतीक्षारत बाहों में महसूस किया। उस रात्री को मैंने अपना जीवन मसीह यीशु को सौंप दिया और अपने जीवन की सबसे रोमांचक यात्रा को आरम्भ किया (लविंग गॉड, पृ. 247)
चार्ल्स कोलसन द्वारा परमेश्वर को नई रीति से जानना
विगत सत्रह वर्षों में इस कहानी को बारम्बार सुनाया गया है। हम इसे सुनना पसन्द करते हैं, परन्तु हम में से कुछ ही लोग इस कहानी को अपने जीवनों या अपनी कलीसिया के जीवन में लागू करते हैं। परन्तु चार्ल्स कोलसन ऐसे नहीं थे। न केवल व्हाईट हाऊस के नेताओं को पैसा देकर मारने वाले हत्यारे 1973 में रो पड़ने के लिए तैयार थे; परंतु वे परमेश्वर के प्रति बुरी तरह अपर्याप्त दृष्टिकोण रखने के लिए कई वर्षों पश्चात भी पश्चाताप करने के लिए तैयार थे। यह असामान्य आत्मिक सूखेपन के समय की बात थी। (यदि आप ऐसे समय से होकर गुज़र रहे हैं तो हिम्मत रखिए! आपकी कल्पना से अधिक सन्तॊं ने ऐसे ही सूखेपन के समयों में ही परमेश्वर से जीवन परिवर्तनीय भेंट की है)। एक मित्र ने कोलसन को सलाह दी कि वे परमेश्वर की पवित्रता के सम्बन्ध में आर.सी.स्प्रौल के सन्देशॊं के वीडियो कैसेट देखें। अपनी पुस्तक लविंग गॉड में कोलसन लिखते हैं -
स्प्रौल को मैं एक धर्मज्ञानी के रूप में ही जानता था, अतः मैं उत्सुक नहीं था। मेरा तर्क था कि आखिरकार यह धर्मविज्ञान उन लोगों के लिए है जिनके पास अध्ययन के लिए समय हो, जो मानवीय आवश्यकता की युद्धभूमि से दूर सुन्दर किलॊं में रहते हों। तथापि मेरे मित्र के आग्रह करने पर मैं स्प्रौल के सन्देशों के वीडियो देखने के लिए तैयार हो गया।
छटवें संदेश को देखते सुनते मैं परम पवित्र परमेश्वर के प्रति अति सम्मान में प्रार्थना के साथ घुटनों पर आ गया।
यह एक जीवन परिवर्तनीय अनुभव था जबकि मैंने उस पवित्र परमेश्वर को जिस पर मैं विश्वास करता हूं और जिसकी मैं उपासना करता हूं, एक नई रीति से जाना।
मेरा आत्मिक सूखापन समाप्त हो गया, परन्तु परमेश्वर के ऐश्वर्य के इस स्वाद ने मुझे उसके प्रति और भूखा बना दिया।
1973 में कोलसन ने परमेश्वर को और स्वयं को इतना जान लिया था कि उन्हें समझ आ गया थे कि उन्हें परमेश्वर की कितनी अधिक आवश्यकता थी, और जैसा कि वे कहते हैं कि वे परमेश्वर की बाहों में खिंचे चले गए। परन्तु कई वर्ष पश्चात और भी कुछ अद्भुत बात हुई। एक धर्मज्ञानी ने परमेश्वर की पवित्रता के विषय पर प्रचार किया और चार्ल्स कोलसन अपने घुटनों पर आ गए, और उन्होंने “पवित्र परमेश्वर को एक बिल्कुल नई रीति से जाना।” उस समय से लेकर उन्हें “परमेश्वर के ऐश्वर्य का स्वाद” मिला। क्या आपने भी परमेश्वर की ऐसी पवित्रता देखी है कि आप उसके ऐश्वर्य के स्वाद को निरन्तर लेना चाहते हैं?
अय्यूब परमेश्वर को नई रीति से देखता है
“ऊज़ देश में अय्यूब नाम एक पुरुष था; और वह निर्दोष, खरा तथा परमेश्वर का भय मानने वाला था, और बुराई से दूर रहता था” (अय्यूब 1:1)। अय्यूब एक विश्वासी था, एक भक्त तथा प्रार्थना करने वाला पुरुष था। निश्चय ही वह परमेश्वर को उस रीति से जानता था जैसा कि जानना चाहिए। निश्चय ही उसने “परमेश्वर के ऐश्वर्य का स्वाद” चखा था। परन्तु तब उसके आत्मिक तथा शारीरिक सूखेपन की पीड़ा और दुर्दशा का समय आया। और अय्यूब के इस अन्धकारपूर्ण समय में परमेश्वर ने अपने ऐश्वर्य में अय्यूब से कहा:
क्या तू सचमुच मेरे न्याय को व्यर्थ ठहराएगा? क्या तू मुझे दोषी ठहराकर अपने आप को निर्दोष ठहराएगा? क्या तेरा भुजबल परमेश्वर के भुजबल - सा है? क्या तू उसकी - सी आवाज़ से गरज सकता है? अपने को महिमा और प्रताप से संवार, तथा अपने को ऐश्वर्य और तेज़ से सुशोभित कर।...प्रत्येक घमण्डी पर दृष्टि करके उसे दीन बना, दुष्टों को जहां वे खड़े हैं वहीं कुचल दे... तब मैं भी तेरे सामने मान लूंगा कि तेरा ही दाहिना हाथ मुझे बचा सकता है... फिर वह कौन है जो मेरा सामना कर सके? किसने मुझे दिया है कि मैं उसे लौटाऊं? सम्पूर्ण आकाश के नीचे जो कुछ है वह मेरा है। (40:8-14; 41:10-11)
अन्त में अय्यूब, कोलसन के समान, “पवित्र परमेश्वर के विषय एक बिल्कुल नए ज्ञान” के प्रति उत्तर में कहता है,
मैंने तो वे बातें कहीं हैं जिनको मैं नहीं समझता, जो मेरे लिए अद्भुत और समझ से परे थीं... मैंने तेरे विषय में कान से सुना था, परन्तु पछताया हूं तथा धूलि और राख में पश्चाताप करता हूं (अय्यूब 42:3-6)।
पवित्र परमेश्वर की खोज में दृढ़ता तथा आशा से लगे रहना
क्या यह बैतलहम चर्च में हो सकता है? हां और यह हुआ। यदि मुझे इसका कोई चिन्ह नहीं दिखता, तो मुझे आगे बढ़ने के लिए परिश्रम करना पड़ता, यद्यपि मैं जानता हूं कि आत्मजागृति की कुंजी दृढ़ता है। ए.जे. गॉर्डन ने अपनी पुस्तक द होली स्प्रिट इन मिशन्स पृ. 139-140 में लिखा -
विलियम कैरी ने सात वर्ष पश्चात ही भारत में पहले धर्मान्तरित को बपतिस्मा दिया, जडसन सात वर्ष पश्चात ही बर्मा में पहला शिष्य बना पाए, मॉरिसन के सात वर्षों के संघर्ष के बाद ही पहला चीनवासी प्रभु यीशु के लिए जीती गया; मोफ्फत ने बताया कि आफ्रीका के बेचुनास में सात वर्षों की सेवा के बाद ही उन्हें आत्मा का प्रत्यक्ष कार्य दिखा। हेन्री रिचर्ड को बान्जा मान्टेका में पहले विश्वासी को जीतने में सात वर्ष लगे।
सतत् प्रयास, प्रार्थना और परिश्रम, ही आत्मिक जागृति की कुंजी है। परन्तु आशा और उम्मीद के साथ भी यही है। और परमेश्वर ने मुझे आशा के चिन्ह दिए हैं कि यशायाह, अय्यूब और चाल्र्स कोलसन का अनुभव यहां भी हो सकता है यदि हम पवित्र परमेश्वर की खोज में लगे रहें। उदाहरण के लिए, हमारी कलीसिया के एक सदस्य ने एक सप्ताह पूर्व मुझे एक पत्र लिखा जिसमें उसने बताया कि,
यहां की सेवकाई मुझे जिसे मैं पहले पर्वत शिखर समझता था उससे भी कहीं ऊंचाई पर ले गई है, परमेश्वर की एक उस भव्य, महान और बड़ी तथा महिमामय छवि को मैं देखता हूं जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी...। परमेश्वर के प्रति मेरा दृष्टिकोण बड़ा और विस्तृत होता जाता है और उसके सर्वसामर्थी प्रताप से सब कुछ प्रचुरता से बहता है। इन दस महीनों में जब मैं बैतलहम में हूं मेरे हृदय में एक नई जागृति है और वह ज्योति और तेज़ होती जाती है।
आत्मजागृति तब आती है जब हम पवित्रता से शोभायमान परमेश्वर की महानता को देखते हैं, और जब हम स्वयं को अनाज्ञाकारी धूल समझते हैं। टूटापन, पश्चाताप, क्षमाप्राप्ति पर अकथनीय आनन्द, “परमेश्वर की महानता का स्वाद”, उसकी पवित्रता के लिए एक भूख - कि उसे और देखें और आत्मसात करें - आत्मिक जागृति है। और यह परमेश्वर को देखने से आती है।
यशायाह के दर्शन में परमेश्वर की सात झलक
यशायाह 6:1-4 में यशायाह ने परमेश्वर का दर्शन पाया, और वह हमें उस दर्शन की झलक देता है।
जिस वर्ष उज्जिय्याह राजा मरा, मैंने प्रभु को बहुत ही ऊंचे सिंहासन पर विराजमान देखा; और उसके वस्त्र के घेर से मन्दिर भर गया। उस से ऊंचे पर साराप दिखाई दिए; उनके छः छः पंख थे; दो पंखों से वे अपने मुंह को ढांपे थे और दो से अपने पांवों को, और दो से उड़ रहे थे। और वे एक दूसरे से पुकार पुकारकर कह रहे थेः सेनाओं का यहोवा पवित्र, पवित्र, पवित्र है; सारी पृथ्वी उसके तेज से भरपूर है। और पुकारनेवाले के शब्द से डेवढि़यों की नेवें डोल उठीं, और भवन धुएं से भर गया।
इन चार पदॊं में मैं परमेश्वर की सात झलक देखता हूं, कम से कम सात -
1. परमेश्वर जीवित है
पहली, परमेश्वर जीवन है। उज्जियाह मर चुका है, परन्तु परमेश्वर सदा जीवित है। “अनादिकाल से अनन्तकाल तक, तू ही परमेश्वर है” (भजन 90:2)। जब यह सृष्टि अस्तित्व में आई परमेश्वर जीवित परमेश्वर था। जब सुकुरात ने विष पिया परमेश्वर जीवित परमेश्वर था। जब विलियम ब्रैडफोर्ड उपनिवेश पर शासन करता था, तब परमेश्वर एक जीवित परमेश्वर था। वह 1966 में जब थॉमस अल्टिज़र ने परमेश्वर को मृत घोषित किया था और टाईम पत्रिका ने इसे अपने मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया था, तब भी वह जीवित परमेश्वर था। और वह खरबों वर्षों जीवित रहेगा जबकि उसकी सच्चाई के विरूद्ध समस्त छोटी -छोटी बातें युद्धपोत बीबी के समान प्रशांत महासागर में डूब जाएंगी। “जिस वर्ष उज्जियाह राजा की मृत्यु हुई मैंने प्रभु को...देखा।” किसी भी देश का ऐसा कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं है जो आज से पचास वर्ष बाद जीवित रहेगा। संसार भर के 100 प्रतिशत नए प्रमुख होंगे। मात्र 110 वर्ष में इस पृथ्वी पर दस अरब नए लोग होंगे और हम (आज जीवित) चार अरब लोगॊं का इस पृथ्वी पर से, उज्जियाह के समान, लोप हो जाएगा। परन्तु परमेश्वर नहीं। उसका कभी कोई आरम्भ नहीं हुआ और इसलिए वह अपने अस्तित्व के लिए किसी पर निर्भर नहीं है। वह सदा से है और सर्वदा जीवित रहेगा।
2. परमेश्वर अधिकार सम्पन्न है
ऎसे कोर्र भी चिन्ह स्वर्ग में नहीं हैं । परमेश्वर अपने स्वर्गीय राज्य में ऎसे किसी काम के लिये नहीं जाना गया ।
दूसरी, वह अधिकारसम्पन्न है। “मैंने प्रभु को ऊंचे और भव्य सिंहासन पर विराजमान देखा।” स्वर्ग के किसी भी दर्शन में कभी भी ऐसी कोई झलक नहीं दिखाई दी है कि परमेश्वर एक खेत जोत रहा हो, या घास काट रहा हो, या जूते चमका रहा हो या रिपोर्ट लिख रहा है या एक ट्रक में सामान लाद रहा हो। स्वर्ग परमेश्वर का है। परमेश्वर अपने सिंहासन पर विराजमान है। सब कुछ शान्तिपूर्ण तथा उसके नियंत्रण में है।
यह सिंहासन संसार पर उसके राज्य करने के अधिकार को दर्शाता है। अपने जीवनों पर हम परमेश्वर को अधिकार नहीं देते हैं। उसका अधिकार तो है ही, हम चाहे अथवा न चाहें। सबसे बड़ी मूर्खता ऐसे प्रदर्शित करना है कि मानो हमें परमेश्वर से प्रश्न करने का अधिकार है। हम उन साफ शब्दों को सुनें जो पिछले महीने की एक पत्रिका रिफॉर्म्ड जर्नल में विर्जीनिया स्टेम ओवेन्स ने कहे -
यह बात हम अच्छी रीति से समझ लें कि परमेश्वर जो चाहे कर सकता है, जो भी उसे अच्छा लगे। यदि वह श्राप देने से प्रसन्न होता है, तो वह यथातथ्यतः पूरा हो जाता है। परमेश्वर के ही कार्य हैं। और कुछ भी नहीं है। इसके बिना तो कोई अस्तित्व ही नहीं हो, सारी सृष्टि के कर्ता का न्याय करने सोचने वाले मनुष्य सहित!
कुछ बातें और दीन बनाने वाली हैं, कुछ बातें हमें उस ऐश्वर्य का आभास देती है, जैसे कि यह परमेश्वर अधिकार सम्पन्न है। वह उच्चतम न्यायालय है, विधायिका है और मुख्य कार्यकारी अधिकारी है, उसके बाद फिर कोई अपील नहीं की जा सकती है।
3. परमेश्वर सर्वशक्तिमान है
तीसरी, परमेश्वर सर्वशक्मिान है। उसके अधिकार का सिंहासन अनेकों में से एक नहीं है। यह ऊंचा और भव्य है। “मैंने प्रभु को ऊंचे और भव्य सिंहासन पर विराजमान देखा।” यह कि परमेश्वर का सिंहासन अन्य प्रत्येक सिंहासन से ऊंचा तथा भव्य है अपने अधिकार का उपयोग करने की परमेश्वर की श्रेष्ठ शक्ति को दर्शाता है। कोई भी विरोधी अधिकार परमेश्वर के आदेशॊं को रद्द नहीं कर सकता है। वह जो चाहता है, करता है। “मैं कहता हूं कि मेरी योजना स्थिर रहेगी और मैं अपनी भली इच्छा पूरी करूंगा” (यशायाह 46:10)। “वह स्वर्ग की सेना और पृथ्वी के निवासियों के बीच अपनी इच्छानुसार कार्य करता है, और न तो कोई उसका हाथ ही रोक सकता और न पूछ सकता है तू ने यह क्या किया।” (दानिय्येल 4:35)। परमेश्वर की सर्वशक्ति (या संप्रभुता) को समझ लेना या तो अद्भुत है यदि वह हमारे साथ है या फिर भयावह है यदि वह हमारे विरूद्ध है। उसकी सर्वशक्ति के प्रति उदासीनता का अर्थ मात्र यह है कि हमने परमेश्वर को जाना ही नहीं है। जीवित परमेश्वर का प्रभुत्व एवं अधिकार उन लोगों के लिए जो उसकी वाचा को पूरा करते है आनन्द और शक्ति का शरणस्थल है।
4. परमेश्वर प्रतापी है
चैथी झलक, परमेश्वर प्रतापी हैं मैंने प्रभु को ऊंचे सिंहासन पर विराजमान देखा, “और उसके वस्त्र के घेरे से मन्दिर भरा हुआ था।” आपने ऐसी दुल्हनॊं की तस्वीर देखी है जिनके वस्त्र के घेरे सीढि़यों तथा मंच को ढक देते हैं। इसका क्या अर्थ होता यदि वह घेरा गलियारे भर में फैला होता और कुर्सियों को और मंच को ढंक लेता? परमेश्वर के वस्त्र द्वारा सम्पूर्ण स्वर्गीय मन्दिर के भर जाने का अर्थ यह है कि वह अतुलनीय वैभवपूर्ण परमेश्वर है। परमेश्वर के ऐश्वर्य की परिपूर्णता हज़ारों रीति से प्रकट होती है।
उदाहरण के लिए, जनवरी माह के रेन्जर रिक में मछली की एक ऐसी प्रजाति पर लेख है जो गहरे अन्धकारपूर्ण समुद्र में रहती है और उनमें ज्योति होती है - कुछ में वह उनके ठोड़ी में होती है तो कुछ की नाक में या उनकी आंखों से नीचे रोशनी की किरण होती है। ऐसी हज़ारों प्रकार की मछलियां हैं जिनमें की प्रकाश होता है और वे गहरे सागर में रहती हैं जहां हम में से कोई नहीं देख सकता है। वे शानदार रूप से अद्भुत और सुन्दर हैं । वे वहां क्यों हैं? बस दर्जन भर ही या कुशल सुव्यवस्थित नमूने के रूप ही में क्यों नहीं हैं? क्यॊंकि परमेश्वर का ऐश्वर्य बहुतायत से है। उसकी रचनात्मक परिपूर्णता अत्याधिक सुन्दरता में उमड़ती रहती है। और यदि संसार ऐसा है तो हमारा प्रभु कितना भय प्रतापी होगा जिसने इस सब को बनाया!
5. परमेश्वर आदरणीय है
पांचवी झलक, परमेश्वर आदरणीय है। “उसके ऊपर साराप थे, जिनके छः छः पंख थे; दो से वे अपने अपने मुंह को ढांपे हुए थे और दो से वे अपने अपने पैरॊं को ढांपे हुए थे और दो से उड़ रहे थे।” कोई नहीं जानता कि ये अजीब छः पंख और आंख वाले बुद्धिसम्पन्न प्राणी क्या हैं। बाइबल में इनका उल्लेख फिर कभी नहीं मिलता है - कम से कम साराप नाम से। दृश्य की भव्यता तथा स्वर्गदूतों की सेना की शक्ति के वर्णन के पश्चात हम देखते हैं कि पुकार पुकार कर कह रहे थे। पद 4 के अनुसार, उन में से जब बोलता है तो मन्दिर की डेवढि़य़ां कांप जाती है। हमें यह समझना होगा कि नीले स्वर्गदूत सेनाओं के यहोवा के सामने विचरण कर रहे थे और ऊंचे स्वर में पुकार रहे थे। स्वर्ग में कोई अदने या मूर्ख प्राणी नहीं हैं, केवल प्रतापी प्राणी हैं।
मुख्य बात है कि वे भी प्रभु को देख नहीं सकते हैं, न ही वे उसकी उपस्थिति में खुद को अपने पैरों को उघाड़े रखने के योग्य समझते हैं। इतने महान और अच्छे, मानव पाप से अछूते, वे बड़ी दीनता के साथ अपने रचयिता का सम्मान करते हैं। स्वर्गदूत मनुष्य को अपने तेज़ और शक्ति से भयभीत कर देता है। परन्तु ये स्वर्गदूत परमेश्वर के तेज से पवित्र भय तथा सम्मान में अपने आपको छिपाते हैं। हम जो उसके स्वर्गदूत के तेज को नहीं सह सकते हैं तो स्वयं प्रभु की उपस्थिति में और भी कितना अधिक थरथराएंगे और कांपेंगे!
6. परमेश्वर पवित्र है
छटवीं झलक, परमेश्वर पवित्र है, “वे एक दूसरे से पुकार पुकार कर कह रहे थे ‘सेनाओं का यहोवा, पवित्र, पवित्र, पवित्र है! सम्पूर्ण पृथ्वी उसके तेज से भरपूर है!’” स्मरण करें कि किसी प्रकार बहादुर चूहा रिपीचिप द व्हाएज आॅफ द डाॅन ट्रेडर के अन्त में अपनी चर्मावृत्त नौका में बैठकर विश्व के छोर तक पहुंच गया। वास्तव में, शब्द “पवित्र” वह छोटी-सी नाव है जिसमें बैठ कर हम भाषा के सागर में संसार के छोर पर पहुंचते हैं। परमेश्वर के अर्थ को बताने की भाषा की सम्भावनाएं अपर्याप्त हैं।
मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि परमेश्वर की पवित्रता को परिभाषित करने का हर प्रयास अन्ततः यह कहने के साथ थम जाता है - परमेश्वर पवित्र है का अर्थ है, परमेश्वर परमेश्वर है। मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। पवित्र शब्द का मूल अर्थ सम्भवतः काटना या अलग करना है। एक पवित्र वस्तु सामान्य उपयोग से अलग तथा पृथक कर दी जाती है। पृथ्वी पर की कुछ वस्तुओं और व्यक्तियों को भी पवित्र कहा गया है जबकि उन्हें संसार से अलग किया गया और परमेश्वर के लिए रखा गया है। इसलिए बाइबल पवित्र भूमि (निर्गमन 3:5), पवित्र सभा (निर्गमन 12:16), पवित्र सब्त (निर्गमन 16:23), एक पवित्र जाति (निर्गमन 19:6), पवित्र वस्त्र (निर्गमन 28:2), एक पवित्र नगर (नहेम्याह 11:1), पवित्र प्रतिज्ञाएं (भजन 105:42), पवित्र पुरुष (2 पतरस 1:21), और स्त्रियां (1 पतरस 3:5), पवित्र शास्त्र (2 तिमुथियुस 3:15), पवित्र हाथ (1 तिमुथियुस 2:8), पवित्र चुम्बन (रोमियों 16:16), पवित्र विश्वास (यहूदा 20) के विषय बताती है। लगभग कोई भी वस्तु पवित्र हो सकती है यदि वह सामान्य से अलग कर परमेश्वर के लिए ठहराई जाए।
परन्तु ध्यान दीजिए कि जब इस परिभाषा को स्वयं परमेश्वर पर लागू किया जाता है तो क्या होता है। परमेश्वर को आप किस से पृथक कर सकते हैं कि उसे पवित्र बनाएं? परमेश्वर का परमेश्वर होने का ही अर्थ है कि वह उन सबसे पृथक है जो परमेश्वर नहीं हैं। सृष्टिकर्ता और सृष्टि के मध्य एक अनन्त गुणवाचक अन्तर है। परमेश्वर समान और कोई नहीं है। वह अनन्य जातिक है। अनन्य प्रभुतासंपन्न है। इस रीति से वह पूर्ण पवित्र है।
या यदि मनुष्य की पवित्रता संसार से अलग कर परमेश्वर को समर्पित की गई है, तो परमेश्वर की पवित्रता किसके प्रति समर्पण में है? किसी के प्रति नहीं परन्तु स्वयं के प्रति। यह कहना ईश निन्दा होगा कि परमेश्वर से उच्च कोई सच्चाई है और पवित्र होने के लिए उसे उसके स्वरूप में होना है। परमेश्वर वह परम सच्चाई है जिसके परे और कोई नहीं है। निर्गमन 3:14 में जब परमेश्वर से उसका नाम पूछा गया तो उसने कहा “मैं जो हूं सो हूं।” उसका अस्तित्व एवं स्वभाव उसके बाहर की किसी भी बात से निर्धारित नहीं होते हैं। वह इसलिए पवित्र नहीं है क्योंकि वह अपने नियमों का पालन करता है। उसने ही नियम लिखें हैं। परमेश्वर इसलिए पवित्र नहीं है क्योंकि वह व्यवस्था का पालन करता है वरन् व्यवस्था पवित्र है क्योंकि यह परमेश्वर को प्रकट करती है। परमेश्वर सिद्ध है बाकी सब कुछ अमौलिक है।
तब उसकी पवित्रता क्या है? बाइबल से इन तीन अनुच्छेदों को देखें। 1 शमूएल 2:2, “यहोवा के समान कोई पवित्र नहीं है, निश्चय, तेरे सिवाए कोई है ही नहीं।”, यशायाह 40:25, “उस पवित्र का वचन है कि तुम मुझे किसके समान बताओगे कि मैं उसके तुल्य हूं।” होशे 11:9, “मैं परमेश्वर हूं, मनुष्य नहीं, हां, तुम्हारे मध्य वास करने वाला पवित्र हूं।” परमेश्वर पवित्र है क्योंकि वह परमेश्वर है, मनुष्य नहीं (लैव्यव्यवस्था 19:2 और 20:7 से तुलना कीजिए। यशायाह 5:16 देखिए)। वह अतुलनीय है। उसकी पवित्रता उसका अति अनूठा अलौकिक सारतत्व है। यह वह जो कुछ है और करना है निर्धारित करती है और कोई उसे निर्धारित नहीं करता है। उसकी वह पवित्रता ही उसे परमेश्वर के रूप में प्रकट करती है जैसी पवित्रता किसी की कभी नहीं थी, न है, न होगी।
इसे उसका प्रताप, उसका परमेश्वरत्व, उसकी महानता कह सकते हैं, उसका मूल्य किसी बेशकीमती मोती के समान है। “पवित्र” शब्द में हम आदर, अचंभा और विस्मय की पूर्ण खामोशी में विश्व के छोर तक पहुंच गए। परमेश्वर के विषय अभी और भी बहुत कुछ जानना शेष है, परन्तु उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है। “यहोवा अपने पवित्र मन्दिर में है, समस्त पृथ्वी उसके सामने शान्त रहे” (हबक्कूक 2:20)
7. परमेश्वर महिमामय है
परन्तु इसके पहले कि हम शान्ति तथा डेवढि़यों की नींव के कांप उठने तथा धुएं के भर जाने के विषय देखते हैं हम परमेश्वर के विषय में उस सातवीं बात को देखते हैं। परमेश्वर महिमामय है। “सेनाओं का यहोवा, पवित्र, पवित्र, पवित्र है। सम्पूर्ण पृथ्वी उसके तेज से भरपूर है।” परमेश्वर की महिमा उसकी पवित्रता का प्रकटीकरण है। परमेश्वर की पवित्रता उसके अलौकिक स्वभाव की अतुलनीय सिद्धता है। उसकी महिमा का तेज उस पवित्रता का प्रदर्शन है। “परमेश्वर महिमामय है” का अर्थ है कि, परमेश्वर की पवित्रता जनसाधारण पर प्रकट है। उसकी महिमा उसकी पवित्रता के रहस्य का खुला प्रकाशन है। लैव्यव्यवस्था 10:3 में परमेश्वर कहता है, “जो मेरे निकट आए वह मुझे पवित्र माने, हां सब लोगॊं के सामने मेरी महिमा हो।” जब परमेश्वर स्वयं को पवित्र प्रकट करता है, तो हम महिमा को देखते हैं। परमेश्वर की पवित्रता उसकी छिपी हुई महिमा है। परमेश्वर की महिमा उसकी प्रकट पवित्रता है।
जब साराप कहता है, “सम्पूर्ण पृथ्वी उसके तेज से परिपूर्ण है”, उसका अर्थ है कि स्वर्ग की ऊंचाइयों से आप पृथ्वी के छोर को देख सकते हैं। यहां नीचे पृथ्वी पर से परमेश्वर की महिमा की सीमित झलक मिलती है। परन्तु यह मुख्यतः हमारे द्वारा नाशमान वस्तुओं को प्राथमिकता देने के कारण सीमित है। हम उन लोगों के समान हैं जो परमेश्वर की महिमा को देखने के लिए रात्रि के समय अपने वाहनों की सवारी करते हैं। परन्तु हमारे ऊपर, हमारी सवारी की दोनों ओर बत्तियां जलती हैं। जब तक कि हमारे सिर पर यह बत्तियां जल रही होती हैं, ऊपर आकाश महिमा रहित है। परन्तु यदि आत्मा की कोई बयार जब इन बत्तियों को बुझा देती है तब हमारे अन्धकार में परमेश्वर का स्वर्ग तारागणों से भर जाता है।
एक दिन परमेश्वर अन्य प्रत्येक महिमा और तेज को बुझा देगा और प्रत्येक छोटे प्राणी को अद्भुत भव्यता का प्रदर्शन करेगा। परंतु इंतज़ार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अय्यूब, यशायाह, चार्ल्स कोलसन, और आप में से अनेकों ने स्वयं को दीन किया है कि पवित्र परमेश्वर के पीछे चलें और उसके प्रताप का स्वाद चखा है। आपके लिए और सभी लोगों के लिए जो इसका अनुभव करना आरम्भ कर रहे हैं, मैं सर्वदा जीवित, अधिकार सम्पन्न, सर्वशक्तिमान, प्रतापी, आदरणीय, पवित्र और महिमामय परमेश्वर की इस प्रतिज्ञा को बताना चाहूंगा, “तुम मुझे पुकारोगे और मेरे पास आकर मुझ से प्रार्थना करोगे और मैं तुम्हारी सुनूंगा। तुम मुझे ढूंढ़ोगे और पाओगे क्योंकि तुम सम्पूर्ण हृदय से मुझे ढूंढ़ोगे” (यिर्मयाह 29:12-13)।