अपने पिता से जो स्वर्ग में है, मांगो
मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूंढो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। 8 क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढूंढता है, वह पाता है? और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा। 9 तुम में से ऐसा कौन मनुष्य है, कि यदि उसका पुत्र उस से रोटी मांगे, तो वह उसे पत्थर दे? 10 वा मछली मांगे, तो उसे सांप दे? 11 सो जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को और अधिक {अंग्रेजी से सही अनुवाद} अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा? इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो; क्योंकि व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षा यही है।
जब आप ये विचार करने के लिए एक क्षण ठहरते हैं कि परमेश्वर असीमित रूप से बलवान् है और जो ‘वह’ चाहता है कर सकता है, और ‘वह’ असीमित रूप से धार्मिक है ताकि ‘वह’ वो ही करता है जो उचित है, और ये कि ‘वह’ असीमित रूप से भला है कि हर चीज जो ‘वह’ करता है, पूर्णरूपेण अच्छी होती है, और ये कि ‘वह’ असीमित रूप से बुद्धिमान है ताकि ‘वह’ सदैव सिद्धता से जानता है कि सही व अच्छा क्या है, और ये कि ‘वह’ असीमित रूप से प्रेमी है ताकि अपने सम्पूर्ण बल व धार्मिकता व भलाई व बुद्धि में, ‘उसके’ प्रियों का सनातन आनन्द, जितना ऊँचा उठाया जा सकता है ‘वह’ ऊँचा करता है — जब आप ये विचार करने के लिए एक क्षण ठहरते हैं, तब भली वस्तुओं को मांगने का इस परमेश्वर का ये उदार आमंत्रण, इस प्रतिज्ञा के साथ कि वह उन्हें देगा, अकल्पनीय रूप से अद्भुत है।
प्रार्थनाहीनता की त्रासदी
जिसका अर्थ है कि कलीसिया में अल्पकालिक बड़ी त्रासदियों में से एक है कि प्रार्थना करने की हमारी अभिरुचि कितनी कम है। संसार में सबसे महान् आमंत्रण हमें प्रस्तावित है, और समझ से बाहर बात है कि हम नियमित रूप से अन्य चीजों की ओर मुड़ते हैं। ये ऐसा है मानो परमेश्वर ने अब तक के सबसे विशाल भोज में, हमें निमंत्रण भेजा और हम जवाब भेजते हैं, ‘‘मैं ने खेत मोल लिया है; और अवश्य है कि उसे देखूं,’’ अथवा, ‘‘मैं ने पांच जोड़े बैल मोल लिए हैं; और उन्हें परखने के जाता हूं,’’ अथवा, ‘‘मैं ने ब्याह किया है, इसलिए मैं नहीं आ सकता’’ (लूका 14:18-20)।
प्रार्थना करने की एक नयी अभिरुचि या झुकाव
ठीक, वो तब था। लेकिन मेरी प्रार्थना है कि 2007 में प्रार्थना करने की एक नयी बाध्यकारी अभिरुचि जाग्रत करने के लिए, परमेश्वर इस संदेश को और मत्ती 7 में यीशु की ओर से इन शब्दों को, और आपकी जिन्दगी में अन्य प्रभावों को उपयोग करे। जब हम इस मूल-पाठ को देखते हैं, मैं आशा करता हूँ कि आप परमेश्वर से ऐसा करने के लिए मांगेगे।
हम इसे दो चरणों में करेंगे। पहिला, हम प्रार्थना करने के लिए मत्ती 7: 7-11 में आठ प्रोत्साहनों की ओर देखेंगे। दूसरा, हम इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करेंगे कि उन प्रतिज्ञाओं को कैसे समझना है, कि हमें दिया जायेगा जब हम मांगते हैं और पायेंगे जब ढूंढते हैं, और दरवाजा खोल दिया जायेगा जब हम खटखटाते हैं।
प्रार्थना करने के लिए यीशु से आठ प्रोत्साहन
इनमें से छः प्रोत्साहन मूल-पाठ में स्पष्ट हैं और दो अप्रत्यक्ष। ये मुझे साफ प्रतीत होता है कि इन आयतों में यीशु का मुख्य अभिप्राय है कि प्रार्थना करने के लिए हमें प्रोत्साहित करे और प्रेरित करे। ‘वह’ चाहता है कि हम प्रार्थना करें। ‘वह’ हमें कैसे प्रोत्साहित करता है?
1. ‘वह’ हमें प्रार्थना करने के लिए आमंत्रित करता है
तीन बार ‘वह’ हमें प्रार्थना करने के लिए आमंत्रित करता है — या, यदि आप इसे प्रेम से सुनेंगे, आप कह सकते हैं, तीन बार ‘वह’ हमें प्रार्थना करने की आज्ञा देता है — कि हमें जो आवश्यकता है, ‘उस’ से मांगें। ये उसके द्वारा आमंत्रित किये जाने की संख्या है जो हमारा ध्यान खींचती है। पद 7-8: ‘‘मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूंढो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। 8 क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढूंढता है, वह पाता है? और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा। दोहराना यह कहने के लिए है कि, ‘‘मेरा आशय यही है।’’ मैं चाहता हूँ कि तुम ये करो। तुम्हारी आवश्यकता क्या है, अपने पिता से मांगो। जिस सहायता की तुम्हें आवश्यकता है, उसके लिए अपने पिता को ढूंढो। अपने पिता के मकान के दरवाजे पर खटखटाओ ताकि ‘वह’ खोले और जो तुम्हें आवश्यक है, तुम्हें दे। मांगो, ढूंढो, खटखटाओ। मैं तीन बार तुम्हें आमंत्रित करता हूँ क्योंकि मैं वास्तव में चाहता हूँ कि तुम अपने पिता की सहायता का आनन्द उठाओ।
2. यदि हम प्रार्थना करते हैं, ‘वह’ हमसे प्रतिज्ञाएँ करता है
तीन आमंत्रणों से भी बेहतर और अधिक चकित करनेवाली हैं, सात प्रतिज्ञाएँ। पद 7-8: ‘‘मांगो, तो {1} तुम्हें दिया जाएगा; ढूंढो, तो {2} तुम पाओगे; खटखटाओ, तो {3} तुम्हारे लिये खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई मांगता है, {4} उसे मिलता है; और जो ढूंढता है, {5} वह पाता है? और जो खटखटाता है, {6} उसके लिये खोला जाएगा। फिर पद 11ब के अन्त में {7} ‘‘तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को और अधिक {अंग्रेजी से सही अनुवाद} अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा!’’
सात प्रतिज्ञाएँ। ये आपको दिया जायेगा। आप पायेंगे। ये आपके लिये खोल दिया जावेगा। मांगनेवाला प्राप्त करता है। ढूंढनेवाला पाता है। खटखटानेवाले को एक खुला दरवाजा मिलता है। आपका पिता आपको अच्छी वस्तुएँ देगा। निश्चित ही, प्रतिज्ञाओं के इस मुक्तहस्त क्रम-विन्यास का आशय हम से ये कहना है कि: आने के लिए प्रोत्साहित रहो। ‘उस’ से प्रार्थना करो। जो आप प्रार्थना करते हैं वो व्यर्थ में नहीं है। परमेश्वर आपके साथ खिलौने के समान खेल नहीं रहा है। ‘वह’ उत्तर देता है। जब आप प्रार्थना करते हैं ‘वह’ अच्छी वस्तुएँ देता है। उत्साहित रहिये। बहुधा प्रार्थना कीजिये, नियमित रूप से प्रार्थना कीजिये, 2007 में आत्मविश्वास से प्रार्थना कीजिये।
3. परमेश्वर स्वयँ को विभिन्न स्तरों पर उपलब्ध करता है
यीशु हमें न केवल आमंत्रणों और प्रतिज्ञाओं की संख्या के द्वारा प्रोत्साहित करता है, अपितु आमंत्रणों के त्रिस्तरीय विविधता के द्वारा। दूसरे शब्दों में, जब आप ‘उसे’ सुलभता के विभिन्न स्तरों में ढूंढते हैं, परमेश्वर सकारात्मक रूप से प्रत्युत्तर देने को तैयार खड़ा रहता है।
मांगो, ढूंढो, खटखटाओ। यदि एक बच्चे का पिता उपस्थित है, वह उससे मांगता है जो उसे चाहिए। यदि एक बच्चे का पिता घर में कहीं है किन्तु दिखाई नहीं दे रहा है तो, जो उसे आवश्यक है उसके लिए वह अपने पिता को ढूंढता है। यदि बच्चा अपने पिता को ढूंढता है और अपने पिता को अध्ययन-कक्ष के बन्द दरवाजे के पीछे पाता है तो, जो उसे आवश्यकता है वो पाने के लिए वह खटखटाता है। मुख्य बात यह प्रतीत होती है कि कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि आप परमेश्वर को, ‘उसकी’ निकटता के साथ लगभग स्पर्शनीय, हाथ भर की दूरी पर तुरन्त पाते हैं, अथवा दिखायी देने में कठिन और बीच में अवरोधों के साथ हो तब भी, ‘वह’ सुनेगा, और ‘वह’ आपको अच्छी वस्तुएँ देगा क्योंकि आपने ‘उस’ की ओर देखा और किसी अन्य की ओर नहीं।
4. हर एक जो मांगता है, प्राप्त करता है
यीशु हमें ये स्पष्ट करने के द्वारा प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करता है कि हर एक जो मांगता है, प्राप्त करता है, मात्र कुछ लोग ही नहीं। पद 8: ‘‘क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढूंढता है, वह पाता है? और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा।’’ जब ‘वह’ पद 8 में जो कोई {हर एक} शब्द जोड़ता है, ‘वह’ चाहता है कि हम अपने भय और हिचकिचाहट पर जय पायें कि कैसे भी हो ये दूसरों के लिए काम करेगा किन्तु हमारे लिए नहीं। अवश्य ही, ‘वह’ यहाँ परमेश्वर के बच्चों के बारे में बात कर रहा है, सभी मानवों के लिए नहीं। यदि हमारे पास हमारे उद्धारकर्ता के रूप में यीशु और हमारे पिता के रूप में परमेश्वर नहीं होगा, तब ये प्रतिज्ञाएँ हम पर लागू नहीं होती।
यूहन्ना 1:12 कहता है: ‘‘सभी को जिन्होंने उसे {यीशु को} ग्रहण किया है, जिन्होंने उसके नाम में विश्वास किया है, उस ने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया।’’ परमेश्वर की सन्तान बनने के लिए, हमें परमेश्वर के पुत्र, यीशु मसीह, को ग्रहण करना अवश्य है, जो हमें लेपालकपन का अधिकार देता है। ये वही है जिसके लिए ये प्रतिज्ञाएँ हैं।
उनके लिए जो यीशु को ग्रहण करते हैं, उनमें से जो कोई मांगता है अपने पिता से अच्छी वस्तुएँ पाता है। मुख्य बात ये है कि ‘उसके’ बच्चों में से कोई भी बहिष्कृत नहीं है। सभी का स्वागत है और आने के लिए आग्रह है। यीशु जिस तरह यहाँ प्रेरित कर रहे हैं, मार्टिन लूथर ने देखा:
‘वह’ जानता है कि हम संकोची और शर्मीले हैं, कि हम परमेश्वर के समक्ष अपनी आवश्यकताओं को रखने में अपात्र और अयोग्य होना बोध करते हैं … हम सोचते हैं कि परमेश्वर इतना विशाल है और हम इतने क्षुद्र कि हम प्रार्थना करने की हिम्मत न करें … इसी कारण मसीह हमें ऐसे संकोची विचारों से दूर लुभाना चाहता है, कि हमारी षंकाओं को दूर कर दे, और हमें आत्मविश्वास और हियाव के साथ आगे बढ़ाये।’’ (द सरमन ऑन द माउन्ट, ‘जेरोस्लेव पेलीकन’ द्वारा अनुवादित, लूथर्स वर्कस् का 21वां ग्रन्थ, {कॉन्कार्डिया, 1956}, पृ. 234)।
5. हम हमारे पिता के पास आ रहे हैं
हमने इसे समाविष्ठ किया है, अब आइये हम इसे इसके स्वयँ के बल के साथ स्पष्टता से कहें: जब हम यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के पास आते हैं, हम अपने पिता के पास आ रहे हैं। पद 11: ‘‘सो जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा!’’ यीशु के लिए पिता, एक फेंक देने लायक लेबल (नामपत्र) नहीं था। ये सभी सच्चाईयों में सबसे महान् है। परमेश्वर हमारा पिता है। आशय ये है कि ‘वह’ हमें कभी और कभी भी वो नहीं देगा जो हमारे लिए खराब है। कभी नहीं। ‘वह’ हमारा पिता है।
6. हमारा स्वर्गिक पिता हमारे सांसारिक पिता से बेहतर है
इसके बाद यीशु ये दिखाने के द्वारा, कि हमारा स्वर्गिक पिता हमारे सांसारिक पिता से बेहतर है और उसकी तुलना में जो वे हमें देते थे, अधिक निश्चित रूप से हमें भली वस्तुएँ देगा, हमें प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करता है। हमारे स्वर्गिक पिता में कोई बुराई नहीं है जैसी कि हमारे सांसारिक पिता में है।
पुनः पद 11: ‘‘सो जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को और अधिक {अंग्रेजी से सही अनुवाद} अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा!’’
मुझे मालूम है और यीशु को और भी अधिक मालूम था, कि हमारे सांसारिक पिता पापमय हैं। इसी कारण बाइबिल बारम्बार न केवल सांसारिक पिता और स्वर्गिक पिता के मध्य समानता की ओर हमारा ध्यान खींचती है, अपितु भिन्नताओं की ओर भी (उदाहरण के लिए, इब्रानियों 12: 9-11; मत्ती 5: 48)।
अतः यीशु मात्र ये कहने के प्रोत्साहन से आगे बढ़ता है कि परमेश्वर तुम्हारा पिता है, और कहता है कि परमेश्वर तुम्हारे सांसारिक पिता से सदैव बेहतर है, क्योंकि समस्त सांसारिक पिता बुरे हैं और परमेश्वर नहीं। यीशु यह पर बहुत सपाट और गैरचापलूस है। समस्त मानवगणों के सार्वभौमिक पापमयता में यीशु के विश्वास का यह एक स्पष्ट उदाहरण है। ‘वह’ ये मान लेता है उसके चेले सभी बुरे हैं — ‘वह’ एक कोमल शब्द नहीं चुनता (जैसे कि पापमय, अथवा दुर्बल)। ‘वह’ स्पष्ट कहता है कि उसके चेले बुरे (पोनेरोई) हैं।
कभी भी परमेश्वर के पितृत्व की आपकी समझ को आपके अपने पिता के अनुभव तक सीमित न करें। बल्कि, निश्चय जानिये कि आपके पिता के कोई भी पाप या सीमाएँ या कमजोरियाँ, परमेश्वर में नहीं हैं।
और यीशु जो बिन्दु बनाता है, वो है: यहाँ तक कि पतित, पापमय पितागण के पास सामान्यतः पर्याप्त आम शालीनता रहती है कि उनके बच्चों को अच्छी वस्तुएँ दें। भयंकर दुव्र्यवहार करनेवाले पिता भी हैं। लेकिन संसार के अधिकांश भागों में, पितागण अपने बच्चे के भले की लगन रखते हैं, तब भी जबकि वे इस बारे में अस्पष्ट हैं कि उनके लिए अच्छा क्या है। किन्तु परमेश्वर सदैव बेहतर है। उसमें कोई बुराई नहीं है। इसीलिए, ये तर्क मजबूत है: यदि तुम्हारे सांसारिक पिता ने तुम्हें अच्छी वस्तुएँ दिया (अथवा यदि उसने न भी दिया हो तब भी!), तुम्हारा स्वर्गिक पिता और कितना अधिक अच्छी वस्तुएँ देगा — सदैव अच्छी वस्तुएँ, उन्हें जो मांगते हैं।
और यहाँ कुछ अप्रत्यक्ष है जो ऊपर प्रोत्साहन क्र. 4 को रेखांकित करता है — शब्द जो कोई (या हर कोई) — ‘‘जो कोई मांगता है, उसे मिलता है।’’ यदि यीशु अपने चेलों को कहता है, ‘‘तुम बुरे हो,’’ तब केवल वे लोग जो परमेश्वर के पास प्रार्थना में आ सकते हैं, परमेश्वर के बुरे बच्चे हैं। आप परमेश्वर के बच्चे हैं। और आप बुरे हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर द्वारा आपको ‘उसके’ परिवार में गोद ले लिये जाने के बावजूद भी, पाप आप में बना रहता है। किन्तु यीशु कहता है, हर कोई प्राप्त करेगा — परमेश्वर के बुरे बच्चों में से हर कोई! हम एक क्षण बाद देखेंगे कि क्यों।
7. हम परमेश्वर की भलाई पर भरोसा कर सकते हैं क्योंकि ‘वह’ हमें ‘अपनी’ सन्तान बना चुका है
यहाँ प्रार्थना करने का एक और अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन है: ‘उसके’ बच्चों के रूप में परमेश्वर हमें अच्छी वस्तुएँ देगा क्योंकि ‘उसने’ हमें ‘उसकी’ सन्तान होने का वरदान पहिले ही दे दिया है।
ये अन्तः दृष्टि संत अगस्टीन से आयी: ‘‘अब किस कारण वह पुत्रों को न देगा जब वे मांगते हैं, जबकि ‘उसने’ पहिले ही ये चीज स्वीकृत कर दिया है, यथा, कि वे पुत्र हों?’’ हम देख चुके हैं कि परमेश्वर का एक पुत्र होना एक वरदान है जिसे हम तब पाते हैं जब हम यीशु के पास आते हैं (यूहन्ना 1: 12)। यूहन्ना 8: 42 में यीशु ने फरीसियों से कहा, ‘‘यदि परमेश्वर तुम्हारा पिता होता, तो तुम मुझसे प्रेम रखते।’’ किन्तु परमेश्वर उनका पिता नहीं है। वे यीशु का तिरस्कार करते हैं। अतः, सभी परमेश्वर के पुत्र नहीं हैं। लेकिन यदि परमेश्वर ने हमें सेंत मेंत में पुत्र बना लिया है, ‘वह’ कितना और अधिक हमें देगा, जो हमें आवश्यकता है?
8. क्रूस, प्रार्थना की नींव है
अन्ततः, इन शब्दों में अप्रत्यक्ष, हमारी प्रार्थना के सभी उत्तरों की नींव के रूप में है, मसीह का क्रूस। कारण कि मैं ये कहता हूँ यह है कि क्योंकि ‘वह’ हमें बुरा कहता है और फिर भी ‘वह’ कहता है कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं। ये कैसे हो सकता है कि बुरे लोग एक सर्व पवित्र परमेश्वर के द्वारा गोद लिये गए हों? मांगें और पाने की अपेक्षा करें, और ढूंढें और पा लेने की अपेक्षा करें, और खटखटायें और अपेक्षा करें कि दरवाजा खोल दिया जायेगा, की बात छोड़ दीजिये, हम बच्चे बन जाना कैसे मान लें?
यीशु ने अनेकों बार उत्तर दिया। मत्ती 20: 28 में, ‘उसने’ कहा, ‘‘मनुष्य का पुत्र, इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल कीई जाए, परन्तु इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे; और बहुतों की छुड़ौती के लिये अपने प्राण दे।’’ ‘उसने’ अपने प्राण हमें परमेश्वर के क्रोध से छुड़ौती के लिये दिया और इसलिये कि हमें सन्तानों की पदवी में लाये, जो केवल अच्छी चीजें प्राप्त करते हैं। और मत्ती 26: 28 में ‘उसने’ अन्तिम रात्रि-भोज पर कहा, ‘‘यह वाचा का मेरा वो लोहू है, जो बहुतों के लिये पापों की क्षमा के निमित्त बहाया जाता है।’’ जब हम ‘उस’ में विश्वास करते हैं मसीह के लोहू के कारण, हमारे पाप क्षमा कर दिये जाते हैं। यही कारण है कि यद्यपि यीशु हमें बुरे पुकारता है, हम परमेश्वर की सन्तान हो सकते हैं और उस पर भरोसा कर सकते हैं कि जब हम मांगें, हमें अच्छी वस्तुएँ दे।
यीशु की मृत्यु, परमेश्वर की सारी प्रतिज्ञाओं की और प्रार्थना के सभी उत्तरों की जो हमें कभी भी मिलते हैं, नींव है। इसी कारण हमारी प्रार्थनाओं के अन्त में हम कहते हैं ‘‘यीशु के नाम में’’। हर एक चीज ‘उस’ पर निर्भर रहती है।
अब तब का सारांश ये है कि यीशु का वास्तव में तात्पर्य है कि हमें प्रार्थना करने को प्रोत्साहित करे। अन्यथा प्रार्थना के बारे में इस तरह से बात क्यों करें यदि हमारे लिए 2007 में ‘उसका’ लक्ष्य ये नहीं कि हम प्रार्थना करें। अतः ‘वह’ हमें प्रोत्साहन पर प्रोत्साहन देता है, कम से कम उनमें से आठ।
एक अन्तिम प्रश्न
एक अन्तिम प्रश्न: पद 7 व 8 में इन छः प्रतिज्ञाओं को हम कैसे समझें: ‘‘मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूंढो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। 8 क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढूंढता है, वह पाता है? और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा।
क्या इसका ये अर्थ है कि हर एक चीज जो परमेश्वर का एक बच्चा मांगता है, वह पाता है?
मैं समझता हूँ कि संदर्भ जो यहाँ है, इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए पर्याप्त है। नहीं, हर एक चीज जो हम मांगते हैं, नहीं पाते और पाना भी नहीं चाहिए और हम पाना भी नहीं चाहेंगे। कारण कि मैं ये कहता हूँ कि हमें पाना नहीं चाहिए यह है कि हम वास्तव में परमेश्वर बन जाते हैं यदि परमेश्वर ने वो सब कर दिया जो हमने ‘उस’ से करने को कहा। हमें परमेश्वर नहीं होना चाहिए। परमेश्वर को परमेश्वर होना चाहिए। और कारण कि मैं कहता हूँ कि हर चीज जो हम मांगते हैं हम पाना भी नहीं चाहेंगे, यह है कि क्योंकि तब हमें असीम बुद्धि का बोझ उठाना पड़ेगा जो हमारे पास नहीं है। हम पर्याप्त जानते भी नहीं हैं कि विश्वसनीयता के साथ निर्णय ले सकें कि हर एक निर्णय कैसा परिणाम देगा और विगत को छोड़ दें, हमारी अपनी जिन्दगियों में अगली घटनाएँ कौन सी होना चाहिए।
लेकिन कारण कि मैं कहता हूँ कि हम जो सब मांगते हैं नहीं पाते, यह है कि क्योंकि मूल-पाठ का यही आशय है। पद 9-10 में यीशु कहते हैं कि एक भला पिता अपने बच्चे को पत्थर नहीं देगा यदि वह रोटी मांगता है, और उसे एक सांप नहीं देगा यदि वह मछली मांगता है। ये दृष्टान्त हमें पूछने को उकसाता है कि, ‘‘क्या होगा यदि बच्चा एक सांप मांगता है?’’
क्या मूल-पाठ ये उत्तर देता है कि स्वर्गिक पिता ये देगा? हाँ, ये देता है। पद 11 में, यीशु दृष्टान्तों से ये सच निकालता है : तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को और अधिक {अंग्रेजी से सही अनुवाद} अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा।
‘वह’ केवल अच्छी वस्तुएँ देता है
‘वह’ अच्छी वस्तुएँ देता है। केवल अच्छी वस्तुएँ। ‘वह’ बच्चों को सांप नहीं देता। इसलिए, मूल-पाठ स्वयँ इस निष्कर्ष से दूर हटकर इंगित करता है कि मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा का अर्थ है मांगो और तुम वही चीज दी जायेगी जो तुमने मांगी है, तुम इसके लिए कब मांगते हो, जिस तरह से तुम इसके लिए मांगते हो। ये वो नहीं कहता। और इसका वो अर्थ नहीं है।
यदि हम पूरे परिच्छेद को एकसाथ लें, ये कहता है कि जब हम मांगते और ढूंढते और खटखटाते हैं — जब हम जरूरतमंद बच्चों के समान, हमारे स्वयँ के संसाधनों से दूर, हमारे भरोसेमंद स्वर्गिक पिता की ओर देखते हुए प्रार्थना करते हैं — ‘वह’ सुनेगा और ‘वह’ हमें अच्छी वस्तुएँ देगा। कभी-कभी हम ठीक क्या मांगते हैं। कभी-कभी हम इसे ठीक कब मांगते हैं। कभी-कभी हम ठीक किस तरह इसकी इच्छा करते हैं। और अन्य समयों पर ‘वह’ हमें कुछ बेहतर देता है, अथवा, ऐसे एक समय पर जब ‘वह’ जानता है कि बेहतर है, अथवा इस तरीके से जो ‘वह’ जानता है कि बेहतर है।
और अवश्य ही, ये हमारे विश्वास को परखता है। क्योंकि यदि हमने सोचा कि कुछ भिन्न चीज बेहतर थी, हमने इसके लिए सर्वप्रथम मांगा होता। किन्तु हम परमेश्वर नहीं हैं। हम असीम रूप से बलवान् नहीं हैं, या असीम धार्मिक, या असीम भले, या असीम बद्धिमान, या असीम प्रेमी। और इसलिए, ये हमारे प्रति और संसार के प्रति महान् दया है कि हम वो सब नहीं पाते जो मांगते हैं।
यीशु को ‘उसके’ ‘वचनों’ के अनुसार लीजिये
लेकिन यदि हम यीशु को उसके वचनों के अनुसार लें, ओह, हम कितनी अधिक आशीष खो देते हैं क्योंकि हम मांगते और ढूंढते और खटखटाते नहीं हैं — हमारे स्वयँ के लिए, हमारे परिवारों, हमारी कलीसिया, हमारे संसार के लिए आशीषें।
तो क्या आप एक नये ताजे वचनबद्धता में मेरे साथ जुड़ जावेंगे कि 2007 में अकेले और परिवारों में और समूहों में प्रार्थना के लिए अलग समय निर्धारित करेंगे। इस ‘प्रार्थना-सप्ताह’ का पूरा शेष भाग, आपके लिए तैयार की गई इसकी विशेष पुस्तिका के साथ, इस संदेश के विस्तृत अनुप्रयोग के रूप में, रखा गया है।